Book Title: Karm Vignan Part 03
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 524
________________ १०४० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आरव और संवर (६) इसीलिए दशवकालिक सूत्र में कहा गया है-' तो साधक दूसरों का तिरस्कारे करे और न ही अपने उत्कर्ष का' गर्व करे।" बल्कि अध्यात्मसंवर के साधक का कर्तव्य है-"वह त्रस और स्थावर, मानव और मानवेतर सभी प्राणियों के प्रति आत्मौपम्य भाव-समभाव रखे, समदर्शी बने। गीता में उसे ही अतिश्रेष्ठ साधक कहा गया है-"जो सुहृत्, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेषी, और बन्युमणों के प्रति, एवं सज्जनों (साधु पुरुषों या धर्मात्माओं) और दुर्जनों पापियों के प्रति समबुद्धि रखता है, वही साधक अतिश्रेष्ठ-विशिष्ट है।" जिसका मन साम्यभाव में स्थित है, उन्होंने यहीं (इस.जन्म में ही) समग्र संसार (संसार के कारणभूत आसव) को जीत लिया क्योंकि ब्रह्म (शुद्ध आत्मा या परमात्मा) निर्दोष और सम है। इसलिए वे ब्रह्म में ही स्थित है, समझ लो।" "जो योनी समस्त प्राणियों को अपनी आत्मा के समान देखता है, सख या दुःख को भी सबमें अपने समान देखता है, वही योगी सर्वश्रेष्ठ माना गया है। . ... .. जहाँ भी विषमता आए, वह चाहे संयोग-वियोग जनित हो, प्रिय-अप्रिय जनित. हो, दुःख-सुख जनित हो, शत्रु-मित्र जनित हो, क्षेत्र-जनित हो, वस्तुजनित हो या व्यक्तिजनित हो, वहाँ कर्मों का आगमन (आसव) अवश्यम्भावी है। अतः अध्यात्म संवर का साधक विषमता के प्रसंगों पर सावधान होकर मन को समभाव में स्थिर करता है, उस समय वह तटस्थ भाव से केवल ज्ञाता-द्रष्टा बना रहता है, अपने ज्ञानगुण में लीन रहता है, न तो किसी पर राग करता है, न द्वेष, तभी अध्यात्मसंवर की सिद्धि होती है। आत्मयुद्ध का पांचवां प्रकार :प्रतिक्रमण .. .. इसके पश्चात् आत्मयुद्ध का पांचवां प्रकार है-प्रतिक्रमण। प्रतिक्रमण: अध्यात्मसंवर की साधना यात्रा में हुई भूलों, दोषों, अपराधों, अतिवारों और त्रुटियों का परिमार्जन करने हेतु आत्मयुद्ध का एक सर्वोत्तम एवं सशक्त साधन है। अध्यात्म-संवर -दशवकालिक ८/३० १. "न बाहिर परिभवे, अत्ताणं न समुक्कसे। . सुअ लाभे न मनिजा, जच्चा तवस्सि बुद्धिए॥" .... २. (क) जो समो सबभूएसु तसेसु थावरेसु या - तस्स सामाइयं होइ इ केंवलिभासियं॥.. .. (ख) सुइन्मिंत्रायुदासीन मध्यस्थदेष्यबन्युए। साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिविशिष्यते॥ (ग) इहवतैर्जितः सर्वो येषां साम्ये स्थितं मनः।: . . निवाब हि सम बम, तस्माद् ब्रमणि ते स्थिताः। (घ) आलौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुनी . सुखं वा यदि वा दुःख, स योगी परमो मतः॥ ३. तुलना करे-निम्ममो निरहंकारी निस्संगो, चतगारयो। "समो य सबभूएसु तसेसु थावरेसु य॥ -अनुयोगदार प्रथम भाग -गीता ६/९ -गीता ५/१९ -गीता ३२ -उत्तराध्ययन अ. १९७९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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