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अध्यात्मसंवर की सिद्धि : आत्मशक्ति सुरक्षा और आत्मयुद्ध से १०३९
अनिष्ट वस्तु या व्यक्ति के संयोग के कारण प्रीति-अप्रीति, रागद्वेष या कषायभाव उमड़ रहे हों, उस समय वह तुरंत संभल जाए और इन्हें कर्मजन्य एवं आत्मबाह्य (विभाव या परभाव) समझकर मन को समभाव में स्थिर कर ले। . चिन्ता, आर्तध्यान आदि करने से किसी समस्या का हल नहीं होता, बल्कि आसवों का प्रवाह अधिकाधिक प्रविष्ट होता है, जिसका परिणाम कटु होता है। उस समय यह विचार करे कि ये सब संकट, विज या वियोग का दुःख संयोगजन्य है, मेरे ही कृतमकर्मों का फल हैं, इसमें घबराने से कुछ नहीं होगा।
- ऐसे समय समभाव में स्थिर होने के लिए यह विचार भी किया जा सकता हैसर्वज्ञ भगवान् ने जो-जो भाव देखे हैं, वे वैसे ही होंगे। मुझे अपना प्रयल या पुरुषार्थ तप, संयम, संवर आदि में करते रहना है। फल अच्छा ही होगा। ___उत्तराध्ययन सूत्र की यह गाथा भी इस विषय में बहुत मननीय है-“(अध्यात्म संवर का) साधक लाभ और अलाम में, सुख और दुःख में, जीवन और मरण में, निन्दा
और प्रशंसा में, सम्मान और अपमान में सदैव सम रहता है।" ..' गीता की यह उक्ति भी ऐसे अवसर पर बहुत प्रेरक है जो पुरुषं प्रिय (मनोज्ञ) को पाकर हर्षित नहीं होता, और अप्रिय (अमनोज्ञ) को पाकर उद्विग्न नहीं होता; ऐसा स्थिरबुद्धि, मूढ़ता (मुग्धता) से रहित, ब्रह्मवेत्ता (आत्मवान्) है, वह (जीवित ही) सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा में स्थित है। - इसी प्रकार जो कदापि मन में न तो हीनता-दीनता-लघुता की भावना लाता है, और न ही गुरुता-उत्कर्षता की भावना लाता है, दोनों स्थितियों में सम रहता है, वह व्यक्ति बहुत से आनवों को रोक सकता है। . आधारांग सूत्र में कहा गया है-"न तो तू हीन (भावना से ग्रस्त) हो, और न .. उत्कर्ष-(अतिरिक्त बड़ाई की भावना) से ग्रस्त हो।" . . . लघुताग्रन्थि और गौरवग्रन्थि, ये दोनों ही संवर साधना को चौपट करने वाली है। गौरवग्रन्थि से ग्रस्त होकर मानव अपने माने हुए तथाकथित कुल, जाति, अतु, बल, तप, वैभव आदि के मद से अहंकारग्रस्त होकर अपनी बड़ाई करने लगता है, और दूसरे का तिरस्कार। १. "लाभालाभे सुहे-दुक्खे जीविए मरणे तहा। समो जिंदा-पसंसासु तहा माणावमाणओ।"
-उत्तराध्ययन १५/९० २. न प्रहृष्येत् प्रियं प्राप्य, नोटिजेत् चाऽप्यप्रियम्। .. स्थिरबुद्धिरसम्मूढो, ब्रह्मवित् ब्रह्मणिस्थितः। "
-गीता ५/२० """"णो हीणे, णो अइरित्ते, णो पीहए।" तम्हा पंडिए णो हरिसे.णो कुझे।' .
-आचारांग १/२/३ सू.
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