________________
१०३६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्रव और संवर (६) जाएगा और (अध्यात्म संवर के सन्दर्भ में) ऐसा करने से तू संसार (इहलोक-परलोक) में सुखी हो जाएगा।" ___अध्यात्मसंवर के सन्दर्भ में आचारांग सूत्र में कामविकारशमन के लिए निर्देश किया गया है-ब्रह्मचर्य संवर की सुरक्षा के लिए ब्रह्मचारी कामोत्तेजक कथा न करे, वासना पूर्ण दृष्टि से स्त्रियों के अंगोपांग न देखें, परस्पर कामुक भावों-संकेतों का प्रसारण न करे, उन पर ममत्वभाव न रखे, शरीर की साजसज्जा से दूर रहे, (स्त्रियों का कार्य न करे), वचनगुप्ति का पालन करे, ऐसा महामुनि अध्यात्म संवर से संवृत होकर सदैव पापकर्म का त्याग करता है।" __इसी प्रकार अध्यात्मसंवर के सन्दर्भ में तीर्थंकर महावीर ने आचारांगसूत्र में विषयवासनाओं कामभोगों से पीड़ित-बाधित मुनि को उनके शमन के लिए ६ मुख्य उपाय बताए हैं जो उत्तरोत्तर प्रभावशाली हैं-(१) नीरस भोजन करना, (विगयत्याग या मिर्चमसालों का त्याग करना), (२) कम खाना (ऊनोदरी करना), (३) कायोत्सर्ग (खड़े-खड़े करना या शीर्षासन आदि आसनपूर्वक करना), (४) ग्रामानुग्राम विहार करना, (एक क्षेत्र में अधिक न रहना), (५) आहार का त्याग करना (अर्थात्दीर्घकालिक तपस्याएँ करना), और (६) स्त्री संग से मन को सदा विलग रखना।
सचमुच उपरिनिर्दिष्ट शमनोपायों से कामवासना एवं भोगोपभोगों की लालसा अचूक रूप से शान्त हो सकती है। वृत्तिकार ने तो हठयोग जैसा कठोर आत्मदमन का प्रयोग भी बता दिया है कि “ऐसा करते हुए भी कामवासना से मन न हटे तो-“आजीवन सर्वथा आहार-त्याग करे, झंपापात करे (ऊपर से गिर जाए), उद्बन्धन करे, किन्तु स्त्री के साथ अनाचार-सेवन की बात मन में भी न लाए।" ।
इसी प्रकार दशवकालिक सूत्र में निर्ग्रन्थ साधुवर्ग को हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह का त्याग क्यों करना चाहिए?' इस विषय में इन पापानवों के १. (क) देखें-आयावयाही चय सोगमलं कामे कमाही कमियं खु दुखं। छिंदाहि दोसं विणएज्ज रागं, एवं सुही होहिसि संपराए॥५॥
-वही, अ. २, गा. ५ की व्याख्या। (आ. प्र. समिति ब्यावर) पृ. ३७-३८ २. से णो काहिए, णो संपसारए,णो मामए, णो कतकिरिए,वइगुत्ते, अज्झप्पसंवुडे परिवज्जए सया पावं॥
-आचारांग सूत्र १/५/४/सू. १६५ ३. (क) देखें-उब्बाधिज्जमाण गामधम्मेहि अवि णिब्बलासए अवि ओमोदरियं कुज्जा, अवि उड्ढे
ठाणं ठाएज्जा, अवि गामाणुगाम दुइज्जेज्जा अवि चए इत्थीसु मणं (आचा. १/५/४,
सू. १६४ की व्याख्या (आ. प्र. समिति ब्यावर) पृ. १७५ (ख) “ पर्यन्ते अपि पातं विद्ध्यात् अप्युबन्धनं कुर्यात् न च स्त्रीषु मनः कुर्यात्।
-वही शीला. टीका पत्रांक १९८ ४. देखें, दशवैकालिक अ. ६ की गा. १०, १२, १३-१४, १५-१६, १७-१८ की व्याख्या
(आ. प्र. समिति व्यावर) पृ. २३६ से २४१ तक।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org