Book Title: Karm Vignan Part 03
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

View full book text
Previous | Next

Page 517
________________ अध्यात्मसंवर की सिद्धि : आत्मशक्ति सुरक्षा और आत्मयुद्ध से १०३३ होने वाले कर्मानवों या कर्मबन्धों का स्वयं निरोध और क्षय कर डाले, स्वयं आत्मदमन करे। .. ..... . ___ऐसी ही स्वैच्छिक आमदमन की एक घटना एक जैन साधु के विषय में सुनी थी"एक साधु को कढ़ी पीने का बहुत शौक था। आहार लेने जाते, तब कढ़ी के विषय में अवश्य पूछते और दो चार घर अधिक घूमकर भी कढ़ी लाते थे। कढ़ी का चस्का इतना अधिक लग गया कि जिस दिन उनके भिक्षापात्र में कढ़ी नहीं आती, उस दिन उन्हें चैन नहीं पड़ता था। वे कढ़ी के चिन्तन में ज्ञान, ध्यान, स्वाध्याय आदि करना भी भूल जाते थे। वैसे वे आत्मार्थी थे, परन्तु कढ़ी की आसक्ति ने उन्हें रसनेन्द्रिय का गुलाम बना दिया था। . . एक दिन प्रतिक्रमण के समय वे चिन्तन करने लगे-त्रिलोक-पूज्य, देवेन्द्रवन्ध साधु होकर भी तूने अपनी आत्मा को कढ़ी का अर्थात्-रसना का गुलाम बना डाला, धिक्कार है, तुझे! चाहे कुछ भी हो जाए, आज एक बार जीभ को कढ़ी पिलाऊंगा, फिर सदा के लिए कढ़ी का त्याग कलया।बस वे पहुँचे एक श्रावक के घर में-पात्र में थोड़ी-सी कढ़ी लाए, सायाही एक पात्र में थोड़ा-सा गाय का गोबर भी ले आए। कढ़ी और गोबर , को मिश्रित करके उन्होंने एक कौर लिया और अपनी जीभ को सम्बोधित करते हुए कहने लगे-“ले, खा यह कढ़ी, पी ले इसे।" और जबरन मुंह में यह गोबर मिश्रित कढ़ी ठूस ली। बस, उस दिन के पश्चात् फिर कभी उनका कढ़ी खाने का मन नहीं हुआ। सदा के लिए स्वेच्छा से वे कढ़ी का त्याग कर चुके।' . 'यह है-आत्मयुद्ध के संदर्भ में स्वेच्छाकृत आत्मदमन का ज्वलन्त उदाहरण। . जिस स्वादेन्द्रिय की जोसति से कर्मों का आनव हो रहा था, वहाँ आत्मदमन से उसका निरोध रूप संवर हो गया।ओत्सदमन और आत्मनिग्रह प्राय:समानार्थक शब्द है। इसीलिए भगवान् महावीर ने आचारांग सूत्र में संसार के सभी मानवों को सम्बोधित करते हुए कहा मानव! तू अपनी आत्मा का ही निग्रह कर स्वयं के निग्रह से ही तू दुःख से (कों के आसव एवं बन्ध से) मुक्त हो सकेगा। .. .. ' सचमुच, आत्मनिग्रह, आत्मसंयम, आत्मरति, आत्मसन्तुष्टि, आत्मतृप्ति, आत्मरमणता एवं आत्मदमन ज्ञानी-सम्यग्दृष्टि मानव के लिए आनन्ददायक, सुखशान्ति कारक एवं आकुलतानाशक है। अध्यात्म संवर की सिद्धि के लिए इसके करने के पश्चात् कुछ करना नहीं रह जाता। भगवद्गीता भी इसी तथ्य का समर्थन करती है-"जो मानव आत्मा में ही रति (रमण) करता है, आत्मा में ही तृप्त है, आत्मा में ही सन्तुष्ट है, उसके लिए कोई अन्य कार्य नहीं रह जाता। १. 'कुछ देखी, कुछ सुनी' (त. मुनि श्रीलाभचन्द्रजी) से संक्षिप्त :, २. 'पुरिसा! अताणमेव अभिणिगिन, एवं दुक्खा पमोक्खसि।' -आचारांग १/३/३ ३. 'यस्त्वामरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः। आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्य न विद्यते।". . -गीता ३/१७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538