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अध्यात्मसंवर की सिद्धि : आत्मशक्ति सुरक्षा और आत्मयुद्ध से १०३१ • कि मैं स्वेच्छा से (सप्तदशविध) संयम और (द्वादशविध) तप से अपनी आत्मा को दमित
कर लूँ।"
. वास्तव में स्वेच्छा से आत्मदमन एक प्रकार का आत्मानुशासन है। दूसरों द्वारा जब अपने पर अंकुश रखा जाता है, नियंत्रण में रखा जाता है, दण्ड शक्ति द्वारा दमन किया जाता है, तब मनुष्य को स्वयमेव मानसिक क्लेश, दुःख एवं पीडा महसूस होती है। परन्तु जब किसी अपराध के लिए मनुष्य स्वेच्छा से स्वयं पर नियंत्रण करता है, अपने आपको शासित, दमित करता है, तब थोड़ा-सा कष्ट तो होता है, परन्तु उसका परिणाम सुखद होता है। यह एक प्रकार का आत्मानुशासन है।
आत्मयुद्ध के लिए आत्मदमन स्वेच्छा से स्वीकृत होता है। अध्यात्मसंवर के सन्दर्भ में आत्मदमन ही श्रेयस्कर माना जाता है। योग साधना में इसे 'हठयोग' कहा जाता है। परन्तु हठयोग और आत्मदमन में थोड़ा-सा अन्तर है। आत्मदमन आत्मा के हित, आत्मा के चरम लक्ष्य (कर्म-मुक्ति मोक्ष), आत्मा के विकास, एवं आत्मा की शुद्धि को लक्ष्य में रखकर किया जाता है, तभी वह आत्मसंयम या आत्मानुशासन अध्यात्मसंवर का रूप लेता है। हठयोग में प्रायः तन-मन के ही हित का लक्ष्य रहता है। आत्मदमन : एक प्रकार का आध्यात्मिक आत्मपीड़न
कई लोग आत्मदमन को आत्मपीड़न कहते हैं, परन्तु यह आत्मपीड़न आत्म-हत्या या आत्मवध का रूप नहीं है। स्वेच्छापूर्वक प्रसन्नतापूर्वक एवं उत्साहपूर्वक जो आत्मदमन किया जाता है-उसे आध्यात्मिक आत्मपीड़न कहा जा सकता है, शारीरिक आत्मपीड़न नहीं। ......
. _आचारांगसूत्र में उच्चसाधकों के लिए इस प्रकार के आत्मदमन की तीन मुख्य भूमिकाएँ बताते हुए कहा गया है-"मुनि पूर्व-संयोग (गृहस्थ पक्षीय पूर्व संयोग अथवा अनादि कालिक आस्रव या असंयम के साथ रहे हुए पूर्व-सम्बन्ध) का परित्याग कर उपशम (इन्द्रियविषयों एवं कषायों का उपशमन) करके शरीर (कर्मशरीर) का
आपीड़न करे, फिर प्रपीड़न करे और तब निष्पीड़न करे।" .. . ... इस सूत्र की व्याख्या करते हुए कहा गया है-आपीड़न, प्रपीड़न और निष्पीड़न, ये तीन शब्द मुनि जीवन की अध्यात्मसंवर-साधना की तीन मुख्य भूमिकाएँ हैं-अर्थात् प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् मुनि तीन भूमिकाओं से गुजरता है। ,
प्रथम भूमिका दीक्षित होने से लेकर शास्त्राध्ययन काल तक की है, जिसमें वह संयमरक्षा, ग्रहण, आसेवनशिक्षा के सन्दर्भ में शास्त्राध्ययन के हेतु आवश्यक तप (आयम्बिल-उपवासादि) करता है, वह आपीड़न है। १. “अप्पा चेव दमेयब्बो, अप्पा हु खलु दुदम्मो। अप्पादतो सुही होइ, अस्सिं लोए परत्य य॥" ___"वरं मे अप्पा दंतो संजमेण तवेण या माऽहं परेहिं दमतो बंधणेहिं वहेहि य॥"
-उतरा. अ. १/गा.१५-१६
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