Book Title: Karm Vignan Part 03
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 516
________________ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) उसके पश्चात् द्वितीय भूमिका आती है-शिष्यों या संघस्थ अन्य मुनियों के अध्यापन तथा धर्म के प्रचार-प्रसार की। इस दौरान भी वह संयम की उत्कृष्ट साधना और दीर्घतपस्या करता है, यह प्रपीड़न है। १०३२ इसके पश्चात् तीसरी भूमिका आती है - शरीरत्याग की । जब मुनि स्व-पर कल्याण की पर्याप्त साधना कर चुकता है, शरीर भी जीर्ण-शीर्ण, अशक्त एवं वृद्ध हो जाता है, चलने-फिरने आदि में भी अक्षम हो जाता है, तब वह संल्लेखनापूर्वक समाधिमरण की तैयारी में लगता है। उस समय दीर्घकालिक बाह्य और आभ्यन्तर तप, कायोत्सर्ग, ध्यान, मौन, स्वाध्याय, आत्मशोधन, आत्मचिन्तन आदि की साधना करता है, यह निष्पीड़न की भूमिका है। यहाँ तप त्याग आदि द्वारा आत्मपीड़न या आत्मदमन अध्यात्मसंवर के सन्दर्भ में कर्मों के आनव के निरोध तथा कर्मक्षय की दृष्टि से स्थूल शरीर के आपीड़न-प्रपीड़ननिष्पीड़न के माध्यम से कर्मशरीर या कर्म का पीड़न ही अभीष्ट है।" आत्मदमन की पूर्वोक्त तीन भूमिकाएँ जैसे साधुवर्ग के लिए बताई हैं, वे गृहस्थ वर्ग के जीवन में भी घटित हो सकती हैं, बशर्ते कि गृहस्थ श्रमणोपासक वर्ग का अध्यात्म संवर की दिशा में प्रस्थान हो । श्रावक के तीन मनोरथ भी इसी तथ्य को प्रकारान्तर से ध्वनित करते हैं। स्वेच्छा से आत्मदमन के लिए एक शास्त्रीय उदाहरण देना अप्रासंगिक नहीं होगा-यूथपति द्वारा अपने नवजात शिशु को मारे जाने के भय से एक हथिनी ने तापसों के आश्रम में एक गजशिशु को जन्म दिया। वह ऋषिकुमारों के साथ-साथ आश्रम के बगीचे को सींचता था, इस कारण उसका नाम 'सेचनक' रख दिया। जवान होने पर यूथपति को मार कर वह स्वयं यूथपति बन गया । यौवन के मद में आकर उसने आश्रम को नष्ट भ्रष्ट कर डाला । तापसों ने राजा श्रेणिक के पास फरियाद की तो उसने इस हाथी को पकड़ने और मारपीट कर बंधन में डालने का निश्चय किया। एक देव ने तत्काल इस हाथी के पास आकर कान में कहा- “पुत्र ! श्रेणिकनृप तुझे मारपीट कर ठीक करे और बन्धन में डाले, इसकी अपेक्षा तो तू स्वयं अपना दमन कर ले।” यह सुनते ही सेचनक हाथी रातोरात श्रेणिक राजा की हस्तिशाला में पहुँच गया और खंभे से बंध गया। इसी प्रकार अध्यात्मसंवर के साधक को दूसरे वश में करें, निग्रह करें, कर्म उसे बन्धन में बाँधे, उससे पहले ही वह स्वयं स्वेच्छा से तप-संयम द्वारा राग-द्वेष-कषायादि से १. देखें- आवीलए पवीलए णिप्पीलए जहित्ता पुब्वसंजोगं, हिच्चा उवसमं।” (आचारांग १/४/४/१४३ सूत्र की व्याख्या पृ. १४० ( आगम प्रकाशन समिति, व्यावर ) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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