Book Title: Karm Vignan Part 03
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 508
________________ १०२४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) .. .: विवेक कई प्रकार का होता है-धन, धान्य, परिवार, गण, शरीर, इन्द्रियां, मन आदि से पृथक्त्व (भिन्नता) का चिन्तन करना परिग्रह-विवेक आदि है, तथा कर्मों से आत्मा के पृथक्त्व की दृढभावना करना कर्मविवेक है। अहंत्व, ममत्व, क्रोधादि कषायों रूप विभावों से आत्मा को पृथक् समझना-भावविवेक है। आन्तरिक शत्रुओं से लड़ो, बाह्य शत्रुओं से नहीं : मनोविज्ञान और अध्यात्म विज्ञान से सम्मत मनोविज्ञान के अनुसार संघर्ष (स्ट्रगल) या युद्ध मनुष्य की मौलिक वृत्तियों में से एक वृत्ति है। संघर्षरत रहना मनुष्य का स्वभाव बन गया है। भगवान् महावीर ने कहातुम संघर्ष करना या लड़ना नहीं छोड़ सकते तो लड़ो, पर बाह्य शत्रुओं से नहीं, आन्तरिक शत्रुओं से लड़ो। पूर्वोक्त सूत्र में उन्होंने मनुष्य की मौलिक वृत्ति को सुरक्षित रखते हुए उसके युद्ध-संघर्ष करने की दिशा ही बदल दी। कहा-“लड़ो अवश्य, परन्तु जो वृत्तियाँ तुम्हारी आत्मा पर हावी हो रही हैं, जो तुम में कषायादि आवेश उत्पन्न करके लड़ने को प्रेरित करती हैं, उनसे लड़ो।" बाह्य-संघर्ष की उत्तेजना पैदा करने वाली जैनदर्शनसम्मत आम्रवन्ध कारिणी ५ वृत्तियाँ ___जैनदर्शन की भाषा में ये पांच आसवोत्पादक कर्मबन्धकारक उत्तेजक वृत्तियाँ हैं, जो मनुष्य में लड़ाई करने का आवेश पैदा करती हैं-(१) मिथ्यात्ववृत्ति (आत्मा का अज्ञान और तत्त्व के प्रति अश्रद्धा), (२) अविरति वृत्ति (विषयभोगों के प्रति रति और व्रत-प्रत्याख्यानादि संयम के प्रति अरुचि),(३) प्रमादवृत्ति, (४) कषायवृत्ति और (५) योग-वृत्ति (मन-वचन-काया की अशुद्ध वृत्ति-प्रवृत्ति। ये पांचों वृत्तियाँ बाह्य संघर्ष करती हैं, जिनसे अध्यात्म संवर के बजाय कर्मानव और कर्मबन्ध की परम्परा में वृद्धि होती है। इन वृत्तियों के कारण मनुष्य कषाय एवं रागद्वेषवश बाह्ययुद्ध, संघर्ष, कलह या क्लेश करता है। आध्यात्मिक महामानवों ने इसी बाह्य संघर्ष को रोक (संवर) कर आन्तरिक संघर्ष करने का कहा-ताकि इस प्रकार के अध्यात्म संवर की साधना द्वारा आत्मा अपने शुद्ध रूप-स्वरूप में, निष्कलंक ज्ञानदर्शनमय स्वभाव में, अपने निजी गुणों में स्थिर हो जाए। १. मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, ये पांचों आम्रव के कारण हैं, क्यों और कैसे?, इसके लिए देखें, इसी खण्ड (छठे) के 'कर्मों के आने के पांच आसव द्वार' शीर्षक निबन्य। २. बाह्य संघर्ष के पांच कारणों के लिए देखें-'सोया मन जग जाए' (युवाचार्य महाप्रज्ञ) का आत्म ना युध्यस्य' लेख पृ. ५५ For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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