Book Title: Karm Vignan Part 03
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 511
________________ अध्यात्मसंवर की सिद्धि : आत्मशक्ति सुरक्षा और आत्मयुद्ध से १०२७ संतत बाह्य संघर्ष, मन क्लेश, तन-मब की अस्वस्थता आदि होना निश्चित है, फिर को के आगमन का तांता लगना सुनिश्चित है। बाह्य संघर्ष का चतुर्थ कारण कायवृत्ति बाह्य संघर्ष का चौथा कारण है-कषायवृत्ति। जब-जब मानव मन में क्रोध, अहंकार, छल-कपट, लोभ, राग, द्वेष, मत्सर, मद आदि की वृत्तियाँ जागृत होती हैं, तब तब युद्ध का आवेश प्रारम्भ हो जाता है। व्यक्ति कषायों से प्रेरित होकर संघर्ष, कलह, वाक्युद्ध, लड़ाई, विद्रोह आदि करता है। अधिकतर बाह्य युद्ध यो संघर्ष अहं प्रेरित होते Pressurna अध्यात्ममा सवरमप्रवृत्तकरना चाहए। अन्ययाबाससघषरत याग अनयक • अध्यात्म संवर के साधक को बाह्ययुद्ध छोड़कर कषायादि वृत्तियों के साथ अपने अंतर में युद्ध छेड़ना चाहिए। जब भी कषाय या रागद्वेष मोह आदि की वृत्ति जगने लगे, तुरत सावधान होकर उससे मुख मोड़ ले। उसे खदेड़ दे। उसका उदात्तीकरण या मार्गान्तरीकरण कर दे। अथवा प्रत्येक प्रवृत्ति करते समय राग-द्वेष से दूर रहकर समभाव या माध्यस्थ्यभाव की स्थिति में रहे। बाह्य संघर्ष का पंचम कारण मन वचन काय (योग) की अशुद्ध प्रवृत्ति . ___संघर्ष का पांचवा कारण है-मन-वचन-काय योगों की अशुद्ध प्रवृत्ति। इसका तात्पर्य है, मन, वचन या शरीर जब आत्मा के नियंत्रण में न रहकर हिंसादि आनवों में प्रवृत्त होने लगते हैं, तब बाह्य संघर्ष अवश्यम्भावी होता है। अतः मन वचून योगों को अशुद्ध दशा-(आमवों) में प्रवृत्त होने से तुरन्त रोककर, दमन या शमन करके तत्काल आमवोत्पादक ही सिद्ध होंगे। - उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि मनुष्य को बाह्ययुद्ध के स्थान पर आत्मयुद्ध करनी चाहिए। परन्तु प्रश्न यह है कि बाह्ययुद्ध की कारणभूत पूर्वोक्त पंचविध वृत्तियों से आन्तरिक युद्ध कैसे लड़ा जाए? .. वतर्मान मनोवैज्ञानिकों ने भी वृत्तियों के साथ संघर्ष करने का नया तरीका ढूंना है। यधपि अध्यात्मविज्ञान के आचार्यों ने भी आत्मा को अपने स्वरूप में स्थिर रखने के.. लिए बाह्य विषयों में प्रवृत्त होने वाली वृत्तियों से संघर्ष करने के विभिन्न उपाय बताए है, परन्तु उन उपायों को लोग श्रद्धापूर्वक मानकर चलते थे, परन्तु अब समय आ गया है कि १. (क): उड्ढ सोता आहे. सोता तिरिय सोवा विवाडिया। '' ___एते सोता वियक्खाया, जेहिं संगति पासम॥ -आचारांग १/५/६/१७९ (आ. प्र. समिति व्यावर) पृ.७४ . ..: (ख) विवएतु सोत निक्खाम, एस मई अकम्पा जाणति पासति" की व्याख्या देखें।... -पृ.१८७ (आ.प्र. समिति व्यावर) P ri ..Ansar UP A GE For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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