Book Title: Karm Vignan Part 03
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 507
________________ अध्यात्मसंवर की सिद्धि : आत्मशक्ति सुरक्षा और आत्मयुद्ध से १०२३ • जैसे कि दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है- “उपशम से क्रोध का नाश करो, मृदुता विनम्रता से अभिमान को जीतो, ऋजुता ( सरलता) से माया ( कपट) को जीतो और संतोष से लोभ पर विजय प्राप्त करो। अगर क्रोधादि कषायों (आस्रवों) को खुली छूट दे दी, उन्हें वश में करने, (उनका निग्रह करने) के बजाय स्वयं उनके ही वशीभूत हो गए तो अनिग्रहीत-असंवृत क्रोधादि विभाव पुनः पुनः जन्म-मरणादिरूप संसार के मूल का सिंचन करते रहेंगे।"" आचारांगसूत्र की दृष्टि से : आत्मयुद्ध क्यों और किसके साथ? आचारांगसूत्र में भगवान् महावीर ने इसी आत्मयुद्ध की ओर अध्यात्म संवर के साधकों को प्रेरित करते हुए कहा- "इसी (आम्नवों से युक्त कर्म शरीर ) के साथ युद्ध करना है, बाह्य युद्ध से तुम्हें कोई मतलब नहीं है।"२ तात्पर्य यह है कि भगवान् ने कहातुम्हें बाह्ययुद्ध नहीं करना है, यहाँ तो आन्तरिक युद्ध करना है। यहाँ स्थूल शरीरगत विकारों और कर्मों के साथ लड़ना है। यह औदारिक शरीर, जो इन्द्रियों और मन के शस्त्र लिये हुए है, विषय - सुखपिपासु है और स्वेच्छाचारी बनकर तुम्हें विविध नवों के मैदान में नचा रहा है। इसके साथ लड़ो और उस कर्मशरीर के साथ युद्ध करो, जो वृत्तियों के माध्यम से तुम्हें अपना दास बना रहा है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, राग, द्वेष आदि सब विभाव कर्म (कर्मों के आनव) रूपी शत्रु की सेना है। इसलिए तुम्हें कर्म-शरीर और स्थूलशरीर के साथ आन्तरिक युद्ध करके कर्मों को क्षीण, परास्त और अवरुद्ध कर देना है। इस भाव (आन्तरिक) युद्ध के योग्य सामग्री का प्राप्त होना अत्यन्त दुष्कर है। आन्तरिक युद्ध के लिए दो अमोघ शस्त्र : प्रज्ञा और विवेक इस आन्तरिक युद्ध के लिए आचारांग सूत्र में दो अमोघ शस्त्र बताए हैं- परिज्ञा और विवेक ।' परिज्ञा से वस्तु का सर्वतोमुखी विवेक करना है। अर्थात् जिन आन्तरिक वृत्तियों, कषायों या मन- इन्द्रियों से लड़ना है, संघर्ष करना है, उनकी स्थिति, भूमिका, मात्रा, बलाबल आदि को भलीभांति समझ लेना है। फिर विवेक से, अथवा आध्यात्मिक भाषा में कहें तो - भेदविज्ञान से, उनके पृथक्करण की दृढ़ भावना करनी है। “उवसमेण हणे कोहं माणं मद्दवया जिणे । माय मज्जव भावेण लोभं संतोसओ जिणे ॥" कोहोय माणो य अणिग्गहीआ माया अ लोभो अ पवड्ढमाणो । चत्तारि एए कसिणा, कसाया, सिंचति मूलाई पुणब्यवस्स ॥ २. देखें- 'इमेण चेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ ?” - आचारांग १/५/३/सू. १५९ की व्याख्या, पृ. १६४ (आ. प्र. समिति ब्यावर ) ३. देखें - "जहेत्य कुसलेहिं परिण्णा - विवेगे भासिते । -- ( आचा. १/५/३/ सू. १५९ की व्याख्या, पृ. १६५ ( आ. प्र. समिति, ब्यावर ) 9. Jain Education International -- दशवैकालिक ८/३९-४० For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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