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अध्यात्मसंवर की सिद्धि : आत्मशक्ति सुरक्षा और
'आत्मयुद्ध
करना और युद्ध करके विजयी बनना अनिवार्य होता है। अन्यथा, ये अध्यात्म संवर की साधना को सफल नहीं होने देंगे।
बाह्ययुद्ध : अनर्थकर एवं अनार्ययुद्ध हैं
आमतौर पर जो युद्ध लड़ते है, वे क्रोध, रोष, आवेश, अहंकार आदि से प्रेरित होकर लड़ते हैं। उसमें व्यक्ति दूसरों को परास्त करने के लिए दूसरों की भूमि, धन-सम्पत्ति, या स्त्री अपने कब्जे में करने के लिए लड़ता है। उसमें धन और जन का संहार होता है, शक्ति, समय और संस्कृति का नाश होता है। युद्ध के बाद पक्ष-विपक्ष के लोगों में शत्रुता, वैर विरोध, वैमनस्य बढ़ जाता है, कंषायों की बाढ़ आ जाती है।
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ऐसा युद्ध चाहे महाभारत का हो, रथ-मूसल संग्राम हो, महाशिला कण्टक हो, या विश्वयुद्ध हो, बहुत ही खतरनाक होता है। उसमें शक्तियों का ह्रास तो होता ही है । विद्याओं, कलाओं, संस्कारों, और सुखशान्ति का लोप हो जाता है। युद्ध के बाद मँहगाई के कारण लोगों का जीवन निर्वाह दूभर हो जाता हैं।
इसलिए इस बाह्य युद्ध में संवर की अपेक्षा आनवों की ही वृद्धि होती है, पाप की ही वृद्धि होती है, पुण्य की नहीं। इसलिए बाह्य युद्ध में जीत भी हार है।
आचारांगसूत्र की वृत्ति में इसे अनार्य युद्ध कहा है, इसके विपरीत परीषहादि शत्रुओं के साथ युद्ध को आर्ययुद्ध कहा, जो दुर्लभ है।
भगवान् महावीर ने भी बाह्ययुद्ध को छोड़ कर आत्मयुद्ध की प्रेरणा दी
भगवान् महावीर भी क्षत्रिय थे, उन्होंने भी अध्यात्म संवर के साधकों को युद्ध के लिए प्रेरित किया है । परन्तु उन्होंने बाह्ययुद्ध की ओर संकेत नहीं किया है।
युद्ध दो प्रकार के होते हैं - बाह्ययुद्ध और आत्मयुद्ध । बाह्ययुद्ध में दूसरों से लड़ा जाता है, मगर आत्मयुद्ध में लड़ने वाली अपनी आत्मा ही होती है, आत्मा आत्मा के साथ युद्ध करता है। श्रमण संस्कृति के परम-उपासक नमिराजर्षि ने इन्द्र को स्पष्ट कह दियामुझे बाह्य युद्ध में कोई विश्वास नहीं हैं। उन्होंने भगवान् महावीर की भाषा में कहाबाह्ययुद्ध से भी अधिक महत्वपूर्ण है, आत्मा के साथ युद्ध करना । आत्मा के इस दुर्ग (शरीर) में घुसे हुए काम क्रोधादि शत्रुओं के साथ युद्ध करके उन्हें खदेड़ना है, उन्हें परास्त करना ही आत्मयुद्ध में आत्मा की परम विजय है।
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• आत्मयुद्ध में युद्ध करने वाला भी आत्मा है और जिससे युद्ध करना है, वह भी आत्मा है। इनमें से एक आत्मा को परास्त करना है, एक को विजयी बनाना है। आत्मा के साथ ही संलग्न क्रोधादि कषाय भी, राग, द्वेष, मद, मत्सर, ईर्ष्या, मोह, आसक्ति, मूर्च्छा-ममता आदि सब विकार - विभाव भी आत्मा के रूप में समता, क्षमता, विरक्ति, सन्तोष, शान्ति, सम्यग्ज्ञान, सत्श्रद्धा आदि आत्मा के निजी गुणों के साथ बैठे हुए हैं, वे
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