Book Title: Karm Vignan Part 03
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 503
________________ अध्यात्मसंवर की सिद्धि : आत्मशक्ति सुरक्षा और आत्मयुद्ध से १०१९ विश्वास के क्षेत्र में आजकल सम्प्रदाय, धर्म, जाति, कुल-परम्परा आदि के नाम पर कई अन्धविश्वास, भ्रम, मिथ्या मान्यताएँ और अन्ध परम्पराएँ घुस जाती हैं, सामान्य लोगों के मन-मस्तिष्क में ये बुरी तरह छाई रहती हैं और दुराग्रह के रूप में पत्थर की लकीर बन जाती हैं। फिर वह विचिकित्सा, शंका या सन्देह का शिकार हो जाता है। अध्यात्मसंवर के साधक की आत्मशक्ति को ये बुरी तरह बर्बाद कर देती है। इस विषय में भगवान् महावीर ने कहा-विचिकित्सा (फल प्राप्ति में सन्देह या संशय) से युक्त आत्मा से व्यक्ति आत्म समाधि प्राप्त नहीं कर सकता। समाधि प्राप्त हुए बिना अध्यात्मसंवर सिद्ध नहीं हो सकता। विवेकयुक्त विश्वास ही निश्चय के तट पर साधक को पहुंचा सकता है। विश्वास की शक्ति ही अध्यात्म संवर साधक की जीवन नैया को संसार सागर से पार कर सकती है।' आत्मशक्ति-संचय का चतुर्थ मूलाधार ः सत्-श्रद्धा ___ आध्यात्मिक क्षेत्र की सर्वोपरि शक्ति सुश्रद्धा है। इसको जो साधक जितनी मात्रा में परिष्कृत, विकसित, अर्जित और संचित करेगा, वह उतनी ही मात्रा में अध्यात्मसंवर साधना में सफलता को सामने करबद्ध खड़ी देखेगा। श्रद्धावान् को ही आत्मज्ञान मिलता है, यह गीतावाक्य मननीय है। गीता में यह भी कहा है कि “यह पुरुष (आत्मा या परमात्मा) श्रद्धातत्त्व से ओत प्रोत है। जो जिस स्तर की श्रद्धा अपनाए हुए है, वह ठीक उसी प्रकार का हो जाता है।" ___ अध्यात्म संवर के माध्यम से आत्मिक सफलता के शिखर पर पहुँचाने में सुश्रद्धा एक प्रकार से प्रबल और समर्थ ब्रह्मास्त्र है। सुश्रद्धा का तात्पर्यार्थ है-देवाधिदेव (अर्हत् और सिद्ध) वीतराग परमात्मा, सद्गुरु, सद्धर्म, एवं सुशास्त्रों अथवा जीवादि नौ तत्वों के प्रति रुचि, जिज्ञासा, उमंग एवं उत्साहपूर्वक अचल सद्भाव, ऐसे उत्कृष्ट तत्त्वों के प्रति अटल समर्पणभाव तथा गहन आत्मीय भावना एवं उच्च आदर्शों, सिद्धान्तों तथा प्रभु के आदेशों-निर्देशों के प्रति भावभरी निष्ठा का सद्भाव, जिसके कारण उन्हें पाने के लिए सब कुछ न्योछावर कर देने या उत्सर्ग (व्युत्सर्ग) कर देने में कोई भी कठिनाई, विचलता या उद्विग्नता महसूस न हो। . आचारांग सूत्र में इसी दृष्टि से अध्यात्म संवर के सन्दर्भ में बताया गया है कि साधक उन्हीं श्रद्धेय त्रिपुटी (देव-गुरु-धर्म) में ही दृष्टि रखे, उन्हीं द्वारा प्ररूपित सर्वकर्मक्षय या कषायमुक्ति में मुक्ति माने, उन्हीं को आगे रखकर विचरण करे, उन्हीं की .. १. .(क) अखण्ड ज्योति, फरवरी १९७७ से भावांश ग्रहण, पृ. ८ . (ख) वितिगिच्छ-समायनेणं अप्पाणेणं णो लहइ समाधि। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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