Book Title: Karm Vignan Part 03
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 501
________________ अध्यात्मसंवर की सिद्धि : आत्मशक्ति सुरक्षा और आत्मयुद्ध से १०१७ • एवं कषायादि विकार प्रबल विघ्नकारक होते हैं। उनसे जूझने के लिए प्रचण्ड मनोबल चाहिए। अन्यथा संचित कुसंस्कारों, पूर्वकृत कर्मों, अथवा नये आते हुए कर्मों तथा कर्मों के आगमन के कषाय-प्रमादादि कारणों से जूझकर अहिंसा संयम एवं तप में निखालिस रूप से प्रवृत्त होना अतीव कठिन होता है। .. इसके लिए चंचलता को ठुकराने वाला; बहकाने वाले आकर्षण एवं प्रलोभनों तथा संवर पथ से विचलित करने वाले दबावों एवं दुष्प्रवृत्तियों से जूझने वाला प्रचण्ड मनोबल भी अध्यात्म संवर के सन्दर्भ में शक्तिसंचय का द्वितीय मूलाधार अत्यावश्यक है। बाल-चंचलता, कौतुकप्रियता, आदि को हटाकर दृढ़ निश्चयी प्रौढ़ता उत्पन्न करने में प्रचण्ड मनोबल की ही प्रधान भूमिका रहती है। मनोबल के लिए कठोर आत्मानुशासन की आवश्यकता ___ अस्तव्यस्तता और अव्यवस्था को दूर करने हेतु इसी कठोरता का आश्रय लेकर तप, तितिक्षा, संयम, नियम, मौन, क्षमा, मार्दव, ब्रह्मचर्य आदि अनेकों धांगों को अध्यात्म संवर की साधना में स्थान देना पड़ता है। साधनाविधि में कहीं ढील-पोल नहीं चल सकती। निर्धारित धर्मक्रिया तथा आचार का पालन भी उत्साहपूर्वक पूर्ण करना होता है। फौजी अनुशासन के समान पूर्ण अनुशासन में अपने आपको रखना होता है। अध्यात्म संवर भी एक तरह से आत्मानुशासन है। साधना के दौरान लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, मान-अपमान, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा, भय-प्रलोभन आदि अनेकों द्वन्द्व मनोबलहीन संवर साधक के मन को शीघ्र प्रभावित करते हैं, और साधक-कठोर संवर पथ को छोड़कर आश्रवों के सुख-सुविधाओं वाले मार्ग को पकड़ लेता है। अध्यात्मसंवर के साधक की कठोर अग्नि परीक्षा कब और कैसे? उसकी आत्मशक्ति की कठोर अग्निपरीक्षा तब होती है, जब इन्द्रियाँ अपने विषयों में उच्छृखल रूप से प्रवृत्त होने को मचलती हैं। अगर उन्हें खुली छूट दे दी जाए, उन पर अंकुश न लगाया जाए तो वासनाओं की उच्छृखलता सारी साधना को चौपट कर. देगी। __जीभ का चटोरापन पेट को विगाड़ कर नाना रोग.पैदा कर देता है, यह किसी से छिपा नहीं है। जननेन्द्रिय का असंयम मनुष्य को निस्तेज और सत्त्वहीन बना देता है, इसके हजारों उदाहरण संसार के इतिहास में प्रसिद्ध हैं। तृष्णा के वशीभूत व्यक्ति अन्याय, अनीति, अत्याचार, शोषण, लूट, ठगी, बेईमानी, भ्रष्टाचार आदि किस-किस पाप में लगाकर अपना पतन कर बैठते हैं, यह भी सर्वविदित है। अहंता एवं जाति आदि के मद का उन्माद किस प्रकार दूसरे को बदनाम करने, नीचे गिराने तथा मिथ्या प्रदर्शन के आडम्बर रचकर ईर्ष्या वैर और द्वेष के बीज बो देता है, उसका ताण्डवनृत्य कहीं भी For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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