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१०२० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कों का आस्रव और संवर (६) . स्मृति (संज्ञान) सभी कार्यों में रखे, उन्हीं के सान्निध्य में तल्लीन होकर रहे। यतनापूर्वक विहरण करे।
... इस सम्बन्ध में दीपक और पतंगे का, चन्द्र और चकोर का, पपीहे और स्वातिबिन्दु का उदाहरण यथार्थरूप से अवतरित होता है। प्यार और स्नेह तो बराबर वालों
और छोटों से भी किया जा सकता है, उमंग तो दुष्कृत्यों के लिए भी उठती है। उत्सुकता तो दुर्व्यसनों और विलासिता के लिए भी उठती है। इन संवेदनाओं तथा अन्धश्रद्धा अथवा विकृत श्रद्धा से सुश्रद्धा की तुलना नहीं हो सकती। ... ___अध्यात्म संवर के सन्दर्भ में वही श्रद्धा ग्राह्य या उपादेय हो सकती है, जिससे उच्च आदर्शों और व्यक्तित्वों के प्रति वफादारी और निष्ठा केन्द्रित हो। परमात्मा पर, गुरु (मार्गदर्शक) पर, सद्धर्म पर, सुशास्त्रों पर, उपासना या साधना पर, ज्ञानदर्शनचारित्र-तपरूप मोक्ष (अन्तिम लक्ष्य) पर, मोक्षमार्ग (कर्म-मुक्ति के पथ) पर जितनी गहन श्रद्धा होगी, उसी अनुपात में आत्मिक शक्ति बढ़ती है, और उस संचित शक्ति से अध्यात्मसंवर का उद्देश्य पूरा होगा। आत्मिक उपलब्धि, प्रगति, कर्ममुक्ति एवं कर्मानवनिरोध की समस्त सम्भावनाएँ इसी सुश्रद्धा पर निर्भर हैं।
ट्रांजिस्टर में जिस प्रकार क्रिस्टल मैग्नेट की शक्ति काम करती है, उसी प्रकार व्यक्तित्व के निर्माण, निर्धारण एवं परिवर्तन में एकमात्र श्रद्धा की शक्ति काम करती है। यदि वह अशुभानवों के आसुरी प्रयोजनों को अपना ले तो सर्वनाशी अधःपतन निश्चित है, किन्तु यदि उसे संवर मार्ग की उत्कृष्टताओं के साथ जोड़ दिया जाए तो उच्चस्तरीय आध्यात्मिक प्रगति की दिशा में द्रुतगति से बढ़ा जा सकता है।
आत्मशक्ति के सुरक्षण, संचय एवं विकास के लिए पूर्वोक्त चारों साधनों का अपनाना आवश्यक है। इन चारों साधनों से आत्मशक्ति की सुरक्षा होने पर व्यक्ति आसवों का निरोध आसानी से कर सकता है, ऐसा होने पर अध्यात्मसंवर स्वतः सिद्ध हो जाता है।' .. अध्यात्म संवर की साधना की सिद्धि के लिए आत्मयुद्ध अनिवार्य ___उपर्युक्त चारों साधनों से शक्ति का संरक्षण, संचय और विकास होने पर भी पूर्वकृत कर्मों के प्रबल संस्कारवश आनवों से-अर्थात-कर्मासवों के काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मान, माया, मत्सर, ईर्ष्या, आसक्ति, राग-द्वेष आदि कारणों से युद्ध करना अनिवार्य होता है। ये आत्मा के निजी गुणों (ज्ञान-दर्शन-सुख-शक्ति) के साथ आत्मा के स्वभाव जैसे बनकर घुस जाते हैं। अध्यात्म संवर के साधक को इन्हें खदेड़ना, परास्त १. (क) “तद्दिडीए तम्मुत्तीए तप्पुरत्कारे तस्सण्णी तण्णिसेवणो जयं विहारी """.
-आचारांग १/५/४/ सू. १६२ (ख) अखण्ड ज्योति, फरवरी १९७७ से भावांश ग्रहण, पृ. ९
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