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बहिर्मुखी नहीं, अन्तर्मुखी होने से ही आत्मा अपने को देख सकती है
यद्यपि आत्मा अमूर्त है, चर्मचक्षुओं से दृष्टिगोचर नहीं होता, तथापि ज्ञानीजनों ने आत्मा को पहचानने की विभिन्न रीतियाँ बताई हैं; उनको अपनाने से आत्मा का दर्शन सम्भव है। ‘योगसार' में कहा गया है - जैसे बड़ के वृक्ष में उसका बीज स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, उसी प्रकार देह में भी उस आत्मदेव को विराजमान समझो, जो तीनों लोकों में मुख्य है।"
अध्यात्म-संवर का स्वरूप, प्रयोजन और उसकी साधना ९७९
परन्तु सामान्य मानव की चेतना प्रायः बहिर्मुखी एवं सुषुप्त रहती है, वह या तो कर्मचेतनारूप होती है, या कर्मफलचेतनारूप; उसकी ज्ञान- चेतना प्रायः अन्तर्तम में छिपी हुई, लुप्तप्राय रहती है। ऐसी स्थिति में भीतर घुसकर आत्मसत्ता को समझना और उसके सहारे अध्यात्म के उच्च शिखर पर पहुँचना बहुधा सम्भव नहीं होता ।
आँखों के माध्यम से आत्मा बाहर के दृश्य तो देखती है, पर उसकी निज की स्थिति क्या है ? वह यह अनुभव नहीं कर पाती कि आत्मा ज्ञानमय है, दर्शनमय है। आचारांग सूत्र में भगवान् महावीर ने आत्मा की स्पष्टरूप से पहचान कराते हुए कहा"जो आत्मा है, वह विज्ञान (विशिष्ट ज्ञान रूप) है, जो विज्ञान है, वही आत्मा है। आत्मा स्वयं को विज्ञान से विशेषरूप से जानती है ।" अर्थात् आत्मा अपना परिज्ञान, अपनी पहचान स्वयं करती है, अपनी ही विशुद्ध ज्ञान - चेतना से । परन्तु अधिकांश आत्माएँ . अपनी बहिर्मुखी वृत्ति के कारण इन्द्रियों के माध्यम से अनुकूल-प्रतिकूल बाह्यविषयों की ही अनुभूति करती हैं, और उन पर ही मनोज्ञता - अमनोज्ञता, प्रियता- अप्रियता, राग-द्वेष, या आसक्ति घृणा, अथवा मोह-द्रोह की छाप लगा कर स्थूल क्षणिक सुख-दुःख की कल्पना कर लेती हैं।
भ्रान्ति का कारण : आत्मानुभव के रस को छोड़कर विषयरसों का आस्वादन
जीभ द्वारा वह बाह्य वस्तुओं के स्वाद चखती है और मनोज्ञ रस को अच्छा और अमनोज्ञ को बुरा मानकर एक में आसक्ति और दूसरे में घृणा का भाव अनुभव करती रहती है। इसके बदले वह (आत्मा) अपने अन्तर् में डुबकी लगाकर अध्यात्म रस का आस्वादन नहीं कर पाती । उपनिषदों के कथनानुसार 'वही वास्तविक रस है।' इसीलिए सूत्रकृतांग में कहा गया है-इन्द्रियों के दास असंवृतात्मा मानव हिताहितनिर्णय के क्षणों में मोह मुग्ध हो जाते हैं।
१.
tasमझ बीउँ फुड, बीहँ वडुवि हु जाण । तं देहहं देउ वि मुणहि, जो तइलोयप्पहाणु ॥ - योगसार दोहा ७४ २. जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया । जेण विजाणति से आया।
- आचारांग श्रु. १ अ. ५ उ. ५ सू. १७१
३. 'मोहं जति नरा असंवुडा ।'
- सूत्रकृतांग १/२/१/२०
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