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९९८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) इन्द्र और विरोचन की आत्मज्ञान-पिपासा में अन्तर'
। एक बार अपने आप को जानने की प्रबल जिज्ञासा देवराज इन्द्र और दैत्यरावं विरोचन के मन में हुई। दोनों प्रजापति के पास आए और विनम्रतापूर्वक अपना-अपन प्रश्न उनके समक्ष रखा। प्रजापति ने दोनों की विवेक बुद्धि की परीक्षा के लिए जल से भरे हुए एक पात्र में अपना-अपना मुख देखने को कहा और बताया-"जो दिखाई दे, वह तुम हो, वही तुम्हारा स्वरूप है।" प्रजापति ने यह जानने के लिए ऐसा किया था कि "इनमें आत्मा को जानने की उत्कट अभिलाषा है या नहीं? अथवा आत्मा को पहचान सकने की क्षमता है या नहीं?" विरोचन तो पानी में अपनी आकृति देखकर अतीय प्रसन्न हुआ और ऐसा कहता हुआ चला गया कि “मैंने अपने आप को जान लिया है।' उसने शरीर को ही अपना स्वरूप माना और वही अपने अनुगामियों को सिखाया कि शरीर को खूब बलिष्ठ बनाओ, और सजधजकर दर्पण में अपने स्वरूप को देखो।
किन्तु इन्द्र इतने से सन्तुष्ट नहीं हुआ। उसने प्रजापति के समक्ष तर्क प्रस्तुत किया-"शरीर ही आत्मा है, इसमें मुझे शंका है, क्योंकि शरीर नाशवान है, उसके नष्ट होते ही आत्मा भी क्या नष्ट हो जाएगी? शरीर को कष्ट दुःख-सुख का जो अनुभव होता है, वह आत्मा को भी होता है क्या?" .. प्रजापति इन्द्र की प्रवलं जिज्ञासा, आत्मज्ञान की क्षमता देखकर प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा-"तत्त्वमसि-तुम वही (परमात्मस्वरूप) हो। तुममें और परमात्मा में कोई मौलिक अन्तर नहीं है। शरीर नाशवान है, आत्मा अविनाशी है। आत्मज्ञान प्राप्त होने पर ही मनुष्य परमात्मा की तरह निर्दोष-निर्विकार शुद्ध हो सकता है।'
" विष्णु पुराण में अध्यात्मसंवर के सन्दर्भ में आत्मज्ञान की महत्ता बताते हुए कहा है-"जब व्यक्ति अपने आत्मस्वरूप को जान लेता है, तब वह शुद्ध, निर्दोष हो जाता है, उसकी समस्त (परपदार्थों को पाने की) कामनाएँ नष्ट हो जाती है। वही आत्मज्ञानी का लक्षण है। आत्मज्ञान की निष्ठा के अभाव में बहिरात्मा बने हुए व्यक्ति की करुणदशा ___ परन्तु आत्मज्ञान की निष्ठा और लक्ष्य प्राप्ति कहने में जितनी आसान है, उतना उसे अन्तरंग के रोम-रोम में रमाना सुगम नहीं है।सामाजिक,गणसम्बन्धी,परिवार सम्बन्धी अनेकानेक विन बाधाएँ, संकीर्णता के पुराने अन्तर्मन में जमे हुए कुसंस्कार चुनौती बनकर आत्मज्ञान साधक के समक्ष खड़े होते हैं।
का सकताहा
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१. अखण्ड ज्योति, सितम्बर १९७९ से सार संक्षिप्त पृ. ६ . . २. "या तु शुद्ध निजरूपि सर्वकामक्षये ज्ञानरूपमपास्तपोषम्।"
-विष्णुपुराण
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