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अध्यात्म-संवर का स्वरूप, प्रयोजन और उसकी साधमा ९९७
वैसे तो एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय प्राणी तक की आत्मा स्वरूप की दृष्टि से एक (समान) है, परन्तु कर्मों के आवरण अथवा कषायादि आम्रवबन्धकारक तत्त्वों से लिप्त होने के कारण आत्माएँ आठ प्रकार की बताई गई है-(१) द्रव्य आत्मा, (२) कषाय आत्मा, (३) योग-आत्मा, (४) उपयोग आत्मा, (५) ज्ञान आत्मा, (६) दर्शन आत्मा, (७) चारित्र आत्मा और (८) वीर्यात्मा।
. सोचना यह है कि इन आठ आत्माओं में कौन-कौन-सी आत्मा, आमा के लक्षण से युक्त है? कौन-सी नहीं ? तथा कौन-सी आत्मा उपादेय या हेय है? वास्तव में देखा जाए तो संसारी जीवों की विकृत एवं कषायादि-लिप्त आत्मा को देखकर ही ये आत्मा के पृथक-पृथक नाम दिये गए हैं। कषाय, योग, उपयोग आदि में से किसी की प्रधानता । या विशेषता को देखकर सांसारिक जीवों की आत्मा की पहचान कराने हेतु ये आठ नाम दिये गए हैं। इनमें से कषायात्मा और.योग-आत्मा ये दोनों प्रकार की आत्माएँ शुद्ध रूप में न होने के कारण हेय है। आत्मा का लक्षण उत्तराध्ययन सूत्र में इस प्रकार दिया गया है
___ "जिसमें ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य (शक्ति) और उपयोग हो ये जीवं (आत्मा) के लक्षण हैं।" त्रिविध आत्मा में बहिरात्मा का चिन्तन और मनोवृत्ति प्रवृत्तियाँ ,
• आत्मा का यह लक्षण होते हुए भी सभी जीवों में यह लमाया प्रकडरूप में नहीं .. दिखाई देता। सांसारिक जीवों की मनोवृत्ति और तदनुसार उनका व्यवहार प्रत्यक्ष प्रतीत होता है-जिजीविषा, वंशवृद्धि की दृष्टि से पुत्रषणा, पेट तथा आश्रितों के भरण-पोषण एवं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वित्तैषणा एवं अपनी प्रशंसा प्रसिद्धि एवं यश, कीर्ति के लिए लोकषणा, ये मूलभूत वृत्ति प्रवृत्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। ये सब आत्मबाह्य तथा शरीर से सम्बद्ध पदार्थ है। इनमें आत्मा के लक्षणानुसार एक भी तत्त्व नहीं है। इसलिए आत्मा के शुद्ध और अशुद्ध रूप को लेकर तीन प्रकार बताये हैं। (७) बहिरात्मा, (२) अन्तरात्मा और (३) परमात्मा।
बहिरात्मा का सारा चिन्तन शरीर और शरीर से सम्बद्ध वस्तुओं को लेकर होता है। वह शरीर को ही आत्मा मनता है। शरीर ही, अथवा शरीर का पोषण ही उसके लिए महत्वपूर्ण होता है। उसमें आत्मा को जानने की जिज्ञासा नहीं होती। होती है तो भी. भौतिकता के घेरे में ही बन्द होकर रह जाती है।
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१. नाणं च दसण चेव, चरितं च तवो तमा
वीरिज उवओगो य, एवं जीवस लक्खा"
-उत्तराध्ययन २८/११
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