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अध्यात्म-संवर का स्वरूप, प्रयोजन और उसकी साधना .१००५ ... . उसकी दुष्प्रवृत्तियाँ और विकृत मनःस्थितियाँ उसे बार-बार आस्रव और बन्ध के दुःखोत्पादक पथ की ओर ही धकेलती हैं। वह मोह एवं अज्ञानवश यह नहीं समझता कि जितना निष्फल पुरुषार्थ मैं इन पराश्रित सुखों को पाने के लिए करता हूँ, उतना ही यदि
आत्मा के प्रति वफादार रहकर आत्मसुखों को पाने हेतु संवर के मार्ग में करूँ तो उस निराबाध सुख की प्रति सहज ही हो सकती है। मेरे अपने ही हाथ में सुख और दुःख है।
इसीलिए भगवान् महावीर ने कहा-"(पाप में प्रवृत्त) अपनी आत्मा ही नरक की वैतरणी नदी और कूटशाल्मलीवृक्ष के समान (कष्टदायी) है और (सत्कार्यों अहिंसादि धर्माचरणों में प्रवृत्त) अपनी आत्मा ही कामधेनु और नन्दन वन के समान (सुखदायी) है।" "(सदाचार में प्रवृत्त) आत्मा तो मित्र के तुल्य है, और (दुराचार और दुर्व्यसनों में प्रवृत्त होने पर) वही आत्मा शत्रु बन जाती है।" . आत्मा ही कर्म बांधती है, वही कर्मों से मुक्त होती है क्यों और कैसे? ___ इसीलिए उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट कहा गया है-कई लोग धर्माचरण करने के बदले धर्म के नाम से अन्धविश्वास, कट्टरता, साम्प्रदायिकता का प्रचार करके परस्पर संघर्ष, बैर-विरोध, हत्या, दंगा, आतंक और मनोमालिन्य पैदा कर देते हैं, उनका वह बाह्य-अहिंसा धर्माचरण भी अधर्माचरण और पापानव का कारण बन जाता है। . . कई लोग अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म के आचरण को दुःखदायक समझकर उससे कतराते हैं, अथवा अनेक सुख-सुविधाएँ अपनाकर धर्मावरण में-रत्नत्रयरूप धर्म की साधना में शिथिलता करते हैं। उनकी आत्मा जो मित्ररूप हो सकती है, वह शत्रु . रूप हो जाती है। अर्थात्-आम्रव और बन्ध के कारण जन्म-मरणादि अनेक दुःखों की परम्परा बढ़ाने वाली बन जाती है। सुख-दुःख, बंध-मोक्ष या उत्थान-पतन, अपने हाथ में
इसीलिए उत्तराध्ययन में कहा गया है-"गर्दन काटने वाला शत्रु भी उतनी हानि नहीं करता, जितनी शनि अधर्माचरण या दुराधरण में प्रवृत्त अपनी स्वयं का आत्मा कर
सकता है।"
. इसीलिए आचारांग सूत्र में कहा गया-"बन्ध और मोक्ष तेरी अन्तरात्मा में ही है।" तू चाहे तो आसवों के मार्ग पर चलकर अपनी आत्मा को बन्धन में डाल सकता है,
-उत्तसध्ययन अ. २०, गा. ३७
-भगवतीसूत्र १७ श. ५ उ.
(ग) अप्पा कता विकता य, पुछाण य सुजाण य।
(य) दुक्खे केण कडे? अत्तकडे दुक्खे, नो परकडे॥ १. (क) अप्पा नई बेयरणी अप्पा मे कूडसामली।
अप्पा कामदुहा घेणू अप्पा मे गंदणवणं। . (ख) अप्पामितममित्तं च दुष्पष्ट्रिय सुप्पडिओ।
-उतराध्ययन २०/३६ -उत्तराध्ययन २०/३७
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