Book Title: Karm Vignan Part 03
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 492
________________ १००८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) संन्यासी मनोमन्थनपूर्वक यह सब सुनता रहा। जब राजा प्रशंसा करके चुप हो गया तो संन्यासी ने मुस्कराते हुए कहा- "राजन् ! तुम मेरें त्याग की इतनी प्रशंसा कर रहे . हो, परन्तु वास्तव में देखता हूँ कि तुम्हारे त्याग के सामने मेरा त्याग बहुत ही नगण्य है। . तुम ही बड़े त्यागी हो!" राजा हतप्रभ होकर सोचने लगा- "मैं कैसा त्यागी हूँ? मैं तो इतने बड़े राज्य, वैभव, ऐश्वर्य एवं सुखसाधनों का उपभोग कर रहा हूँ, फिर भी गुरुवर्य कह रहे हैं कि तुम बड़े त्यागी हो । यह अटपटी बात समझ में नहीं आती।” राजा ने जिज्ञासुभाव से पूछा - "गुरुदेव ! मैं कहाँ त्यागी हूँ, मैं तो भोगी हूँ। त्यागी तो आप हैं।" संन्यासी ने रहस्योद्घाटन करते हुए कहा- "राजन् ! मैंने जो कुछ छोड़ा है, वह बहुत पाने के लिए अल्प को छोड़ा है। मैं मुक्ति (कर्ममुक्ति) का राज्य प्राप्त करना चाहता हूँ, उसके लिए मैंने बहुत थोड़ा त्याग किया है। अर्थात् मैंने प्रभूत परमात्मवैभव एवं अनन्त सुखशान्ति पाने के लिए अल्पमूल्यीय सांसारिक वैभव सम्पदा का त्याग किया है; लेकिन तुम तो इस अनन्त सुखशान्तिमयी परमात्म-सम्पदा, जो कि बहुत बड़ी है, उसको छोड़ कर इस अल्पमूल्यीय सांसारिक सुखवैभव में मग्न हो रहे हो। सोचो - - तुम्हारा त्याग • बड़ा है, या मेरा ?" राजा इस तात्त्विक एवं सात्त्विक अमृतवचन को सुनकर नतमस्तक हो गया। वास्तव में, संन्यासी और राजा की दृष्टि में अन्तर के कारण ही ऐसा हो रहा था। राजा की दृष्टि में भोग सुख की प्रधानता महत्वपूर्ण थी, जबकि संन्यासी की दृष्टि में त्याग में सुखशान्ति की प्रधानता । इसी प्रकार आम्रवप्रधान लोगों की दृष्टि में सांसारिक राग-द्वेषवर्धक सुखभोग के साधन रुचिकर एवं महत्वपूर्ण लगते हैं, जबकि संवर- निर्जरारूप धर्म प्रधान लोगों की दृष्टि में तप, त्याग, यम, नियम आदि रुचिकर लगते हैं। यह दृष्टि की ही सम्यक्ता, असम्यक्ता का प्रभाव है। जैसे पीलिया हो जाने पर आँखें पीली हो जाती हैं और हर पदार्थ पीला नजर आता है, ज्वरग्रस्त हो जाने पर प्रत्येक पदार्थ कडुआ लगता है, पागल हो जाने पर - आदमी को सर्वत्र अव्यवस्था दिखाई देती है और वह अस्त-व्यस्त ढंग से चलता है, अटलट बोलता है, जैसे-तैसे अनुकूल-प्रतिकूल सोचता है, वैसे ही दृष्टि एवं ज्ञान मिथ्या हो जाने पर व्यक्ति को सुखशान्तिदायक संवरनिर्जरारूप धर्म अरुचिकर, कठोर, असुविधाजनक एवं कष्टदायक लगता है। आत्मा में निहित अनन्तज्ञान एवं अनन्तदर्शन तथा अनन्तसुख को जाननेसमझने और दृढ़तापूर्वक अपनाने की दृष्टि प्राप्त हो जाए तो व्यक्ति अध्यात्मसंवर के मार्ग में स्थिर होकर कर्मों के आनव से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। * Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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