Book Title: Karm Vignan Part 03
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 495
________________ अध्यात्मसंवर की सिद्धि : आत्मशक्ति सुरक्षा और आत्मयुद्ध से १०११ १४) कतिपय अन्धश्रद्धालु व्यक्ति परलोक में कामभोगों या कामसुखों की प्राप्ति के लिए इहलोक में उक्त लौकिक कामना के वशीभूत होकर दान, शील, तप या उपकार आदि करके प्रेत्यबल बढ़ाते हैं। (५) कुछ लोग तथाकथित देवी-देवों को प्रसन्न करके उनकी शक्ति (देवबल) पाकर अपनी तुच्छ लौकिक कामना सिद्ध करने हेतु पशुबलि, हिंसाबहुल यज्ञ, सुरा-मांस आदि का चढ़ावा, तथा हिंसाजनित पदार्थों का पिण्डदान करते हैं। (६) कई लोग शासनकर्ताओं, शासनाध्यक्षों या राजा महाराजाओं से सम्मान पाने तथा उनसे किसी तुच्छ स्वार्थ की सिद्धि के लिए, अथवा उनका आश्रय पाने, अथवा उनके पृष्ठबल से किसी को दबाने-सताने हेतु उन्हें कूटनीति की चालें बताते हैं, भ्रष्टाचार की रीति सिखाते हैं, अथवा शत्रु राज्य को या विरोधी पक्ष को परास्त करने में सहायक बनकर राजबल बढ़ाते हैं। (७) कई लोग धन प्राप्ति अथवा चोरी, लूटपाट, तस्करी आदि का माल लेने हेतु अथवा अपना आतंक, रौब व दबदबा बढ़ाने हेतु लुटेरों, चोरों, तस्करों एवं दस्युओं आदि से सांठगांठ करके अपना चोरबल बढ़ाते हैं। . (८) कई लोग अतिथियों-मेहमानों को अपने पक्ष में करने हेतु उनकी अपेय-अभक्ष्य पदार्थों से तथा अन्य अनाचार युक्त सुविधाएं देकर अतिथिबल बढ़ाते हैं। (९) कई लोग कृपणों (अनाथों, कंजूसों, अपंगों या याचकों) का बल बढ़ाने हेतु उन्हें मांसाहार-मद्य आदि भोज्य पेय पदार्थ खिला-पिलाकर अपने चहेतों, प्रशंसकों या मतदान समर्थकों की पलटन खड़ी कर लेते हैं, और उनसे सम्मान, प्रतिष्ठा एवं प्रशंसोदि पाने के लिए कुछ धन या साधन भी दे देते हैं। (१०) कई लोग शाक्यों, श्रमणों आदि को दोषयुक्त एवं औद्देशिक आहारपानी तथा आचार-शिथिलता-पोषक कई सुख-सुविधाएँ देकर अपने पक्ष में कर लेते हैं, और उनके मुख से अपनी प्रशस्तिगान, प्रशंसावाक्य सुनकर अपना श्रमणबल बढ़ाते हैं। • इन और ऐसे ही विविध अध्यात्म संवर के विरुद्ध, अथवा आर्य-आचार या अहिंसा प्रधानं आचरण के विरुद्ध कार्यों से दण्ड-समारम्भ (हिंसाजन्य-प्रयोग) करते हैं। इनमें से अधिकांश लोग जानबूझकर या भय से ये हिंसाजन्य कार्य करते हैं, कई लोग अपने द्वारा किये हुए विविध पापों पर पर्दा डालने अथवा पापों से छुटकारा पाने की मान्यता से ऐसा करते हैं। कई लोग किसी सांसारिक या भौतिक अपेक्षा से, स्वार्थ से या लौकिक कामना (आशंका) से ऐसा अनिष्ट करते हैं।" 1. “से आयबले, से णाइबले, से मित्तवले, से पेच्चबले, से देवबले, से रायबले, से चोर-बले, से अतिहिबले, से किवणबले, से समणबले। इच्चेतेहिं विरूवरूवेहिं कज्जेहिं दंड-समादाणं, सपेहाए भया कज्जति, पावमोक्खोति मण्णमाणे अदुवा आसंसाए॥" . -आचारांग श्रु. १ अ.२, उ. २, सू. ७३, वृत्ति, तथा व्याख्या, (आ. प्र. स. व्यावर) For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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