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१०१० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कमों का आनव और संवर (६) में, समत्व या शम आदि या क्षमादि दशविध उत्तमधर्मों के आचरण में परीषहों, कषायों एवं विषयविकारों पर विजय प्राप्त करने में लगाते हैं; वहाँ अध्यात्म-संवरप्रधान दृष्टि से रहित भौतिकलक्ष्यी दृष्टि वाले मानव अपनी उन शक्तियों का उपयोग या तो करना ही नहीं जानते, या फिर वे हाथ पर हाथ धरकर बैठे रहेंगे, अपनी शक्तियों का बिलकुल उपयोग नहीं करेंगे। - कई आसुरी शक्तिप्रधान व्यक्ति हिंसादि कुकृत्यों में जूआ, चोरी, मांसाहार, शिकार (निर्दोष पशुपक्षियों के वध), व्यभिचार, मद्यपान आदि करके अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करते हैं। फलतः ऐसे लोगों को शक्ति का मिलना, न मिलना बराबर है।
कुछ लोग अपनी शक्तियों का उपयोग एकान्ततः लौकिक एवं भौतिक कामनाओं तथा तुच्छ स्वार्थों के वशीभूत होकर हिंसा, असत्याचरण, ठगी, बेईमानी, चोरी, डकैती तथा अत्यन्त भोगविलास, अनाचार; दुराचार, भ्रष्टाचार, परिग्रहवृद्धि आदि में करते हैं, फलतः वे अशुभ आम्रवों की वृद्धि करते हैं। अर्जित या प्राप्त शक्ति का दुरुपयोग मुख्यतया आठ कारणों से करते हैं . आचारांगसूत्र में बताया गया है कि कतिपय व्यक्ति निम्नोक्त आठ कारणों से अपनी अर्जित बहुमूल्य शक्ति का सरासर दुरुपयोग करते हैं-(१) अपने जीवन या जीविका के लिए, (२) अभिनन्दन, यश एवं प्रशंसा के लिए, (३) सम्मान-प्राप्ति के लिए, (४) पूजा-प्रतिष्ठा पाने के लिए, (५) सन्तानादि के जन्मोत्सव आदि के निमित्त से, (६) मृत्यु-सम्बन्धी कारणों या प्रसंगों पर, (७) कारागार-बन्धन से या जन्म-मरण के दुःख से पिण्ड छुड़ाने के लिए, और (८) रोग, आतंक, उपद्रव, संकट आदि दुःखों को मिटाने या उनका प्रतीकार करने के लिए। आत्म शक्ति की आराधना को छोड़कर शरीरादि शक्तियों की आराधना कितनी निकृष्ट? ..
. .. __इसका विश्लेषण करते हुए आचारांग सूत्र में इसकी व्याख्या की गई है
(१) कई लोग शारीरिक शक्ति (कायबल) बढ़ाने के लिए मांस, मछली, अण्डों आदि का तथा मध आदि नशीली चीजों का सेवन करते हैं।
. (२) कई लोग स्वयं अजेय होने के लिए स्वजन-सम्बन्धियों को शक्तिशाली बनाते हैं और स्वजनवर्ग के बल (जातिवल) को अपना बल मानते हैं।
. (३) कई धनप्राप्ति, स्वार्थसिद्धि, पद, प्रतिष्ठा, यश-कीर्ति, प्रशंसा एवं सम्मान की प्राप्ति के लिए मित्रबल बढ़ाते हैं। ..... १. - "इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण-माणण-पूषणाए, जाई-मरण-मोयणाए दुक्ख-पडिघात हेतु।"
-आचारांग श्रु. १ अ. १ उ. १ सू.७
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