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अध्यात्म-संवर का स्वरूप, प्रयोजन और उसकी साधना १००३
वस्तुएँ दोनों के समक्ष एक जैसी हैं। उनकी स्थिति में कोई अन्तर नहीं आया, पर एक ने उन्हें प्राणप्रिय माना और दूसरे ने उन्हें विरक्तिपूर्वक ठुकरा दिया, अथवा एक ने उन्हें मनोज्ञ-अमनोज्ञ मानकर राग-द्वेष किया, दूसरा उन वस्तुओं या विषयों को जीवन यात्रा की आवश्यकतानुसार अपनाकर या पाकर भी तटस्थ या सम रहा; न तो उनके प्रति राग (मोह ममत्व) किया और न ही उनके प्रति द्वेष यां घृणा की।
यही समभाव की माध्यस्थ्यदृष्टि या ज्ञाता- द्रष्टा रहने की दृष्टि ही अध्यात्मसंवर की दृष्टि है ।"
• असीम सुख अपनी आत्मा में ही है, बाह्य पदार्थों और विषयों में नहीं
अनन्तज्ञान और अनन्तदर्शन के बाद आत्मा का निजी गुण अनन्त सुख (आत्मिक आनन्द) है। वह भी आत्मा में ही है। परन्तु आनवलक्ष्यी दृष्टि वाला मनुष्य, कस्तूरीमृग के द्वारा नाभि में कस्तूरी होते हुए भी जगह-जगह बाहर भटकते रहने की तरह उस आत्मसुख को बाह्य पदार्थों में ढूँढ़ता फिरता है। आनव प्रधान दृष्टि वाला मानव बाह्य पदार्थों और इन्द्रिय विषयों को पाने और कामभोगों का उपभोग करने में सुख की कल्पना करता है, वह मरुभूमि में मृगमरीचिका की तरह सुख की पिपासा मिटाने के लिए दौड़ लगाता है। किन्तु सुख उससे दूरातिदूर होता जाता है।
• इसीलिए दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है- "जो व्यक्ति विविध कामभोगों से निवृत्त नहीं हो पाता है, वह संकल्पविकल्प के वशीभूत होकर पद-पद परं विषाद, चिन्ता, शोक और दुःख पाता है।"
अधिकांश लोग सुखाकांक्षी बनकर पदार्थों और व्यक्तियों के माध्यम से लोभ और मोह के वशीभूत होकर इन्द्रिय विषयों की लालसा, कामवासना एवं मनोवांछा अथवा धनादि की तृष्णा की पूर्ति में सुख मानते हैं; और इनकी पूर्ति के लिए हाथ-पैर पीटते हैं, परन्तु वे अपने काल्पनिक सुखों को पाने में सफल नहीं होते। इसके विपरीत जो विकासवान् आत्माएँ होती हैं, वे इस बालक्रीड़ा को विनोद की दृष्टि से देखती हैं, परन्तु उस क्रीड़ा में स्वयं फंसने की मूर्खता नहीं करतीं। वे इस इन्द्रियजन्य या भौतिक सुख की वास्तविकता और दुःखबीज समझकर अध्यात्मसंवर के पथ पर चलते हैं और आत्मा में जो असीम सुख (आनन्द) का स्रोत है, उसे ही पाने के लिए प्रयत्नशील होते हैं। उनकी दृष्टि में अन्तिम सुख स्वाधीन है, स्वतन्त्र है, वस्तुओं और परिस्थितियों पर अवलम्बित नहीं है।
इसीलिए संसार के समस्त लोगों को इस वस्तु-निष्ठ या विषयाधीन सुख की भ्रान्ति मिटाते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा- "जो सुख इन्द्रियों से प्राप्त होता है, अथवा
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२.
अखण्ड ज्योति, सितम्बर १९७६ से भावांश ग्रहण, पृ. ५२
"जो कामे न निवारए। पए पए विसीयंतो संकष्पस्स वसं गओ ।" - दशवैकालिक अ. २ गा. १
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