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१००२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आरव और संवर (६). अपने आप में न तो सुख होता है, न ही दुःख। पदार्थ और विषय दोनों ही निर्जीव हैं, वे अपने आप में न तो प्रिय होते हैं, न ही अप्रिया सुख-दुःख की या प्रिय-अप्रिय की कल्पना तो मनुष्य के मन की कल्पना है। .. इन्द्रियों, मन और प्राणों को अच्छे या बुरे प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त किये जाने पर जो कुछ भी सुख-दुःख की या प्रिय-अप्रिय की संवेदना (अनुभूति) होती है, वह आत्मा की अपनी भ्रान्तिपूर्ण अनुभूति या संवेदना है। ऐसी स्थिति में जड़ पदार्थों का पौद्गलिक विषयों को न तो दुःख के लिए दोष दिया जा सकता है, और सुख के लिए श्रेय। मनुष्य की गलत मान्यता या मिथ्या दृष्टि के कारण ही ऐसा होता है। यदि मनुष्य की दृष्टि सम्यक् हो जाए, वह अध्यात्मसंवर की दृष्टि बन जाए तो उसकी मान्यता भी यथार्थ एवं भ्रान्तिरहित हो सकती है।
जैसे रत्न के मूल्य से अपरिचित आदिवासी के समक्ष एक सेर गुड़ और एक रल रखकर दोनों में से एक को उठा लेने को कहा जाए तो वह गुड़ को उठाएगा, रल को नहीं। बल्कि रल की ओर वह आँख उठाकर भी नहीं देखेगा। किसी अबोध शिशु के समक्ष एक ओर हजार रुपये के नोटों का बंडल रखा जाए और दूसरी ओर एक खिलौना रखा जाए तो वह नोटों के बंडल की उपेक्षा करके खिलौने को खुशी-खुशी उठा लेगा। . .
ठीक यही बात यहाँ बाह्य जगत् में बिखरे हुए धनादि जन्य निर्जीव विषय सुख-साधनों, सुख-सुविधाजनक पदार्थों तथा निर्जीव विषयों की तुलना आध्यात्मिक सम्पदा एवं आत्मशक्तियों से की जा सकती है। प्रान्त मान्यता एवं असम्यकदृष्टि वाले व्यक्ति की वृत्ति-प्रवृत्ति बाह्य निर्जीव पदार्थों और विषयों को अपनाने की होती है, आत्मिक सम्पदा एवं आत्मिक आनन्द एवं शक्ति को पाने के लिए अध्यात्म-संवर को अपनाने की नहीं होती। अध्यात्मसंवर में बाधक-साधक अपनी ही विपरीत दृष्टि, मान्यता एवं वृत्ति
निःसंदेह मनुष्य अपनी दृष्टि, मान्यता एवं वृत्ति के स्तर पर ही वस्तुओं का मूल्यांकन करता है। तदनुरूप ही प्रिय-अप्रिय का, लाभ-हानि का तथा सुख-दुःख आदि का अनुमान लगाता है, अपनी मनोवृत्ति में तदनुरूप ही राग-द्वेष को जोड़ता है।
. परन्तु दृष्टिकोण का स्तर बदलते ही, आमवों (कर्मागमन कारणों) को हेय और संवर (कर्मागमन निरोध) को उपादेय समझने लगता है। दृष्टि बदलते ही अनुभूतियों और मान्यताओं में जमीन-आसमान जैसा अन्तर आ जाता है। फिर व्यक्ति जिन पदार्थों और विषयों को पाने, सुरक्षित रखने और उपभोग करने के लिए लालायित रहता था, उन्हें आत्मविकास के लिए निरर्थक एवं अनर्थकर समझकर ठोकर मारते हुए या पीठ करते हुए संकोच नहीं करता। . .
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