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अध्यात्म-संवर का स्वरूप, प्रयोजन और उसकी साधना १००१
और कोई शत्रु नहीं है। इसी अज्ञान से आवृत, विमोहित एवं प्रेरित होकर व्यक्ति अनेकानेक दारुण घोर कुकर्मों में प्रवृत्त होता रहता है।"
अपनी आत्मा से सत्य का अन्वेषण करो : यही आत्मज्ञान का रहस्य है'
इसीलिए भगवान् महावीर ने आत्मविकास- गवेषकों को अन्धविश्वास, मोह, अज्ञान आदि से ऊपर उठकर स्वयं आत्मान्वेषण करने का कहा है-"अपनी आत्मा से ही सत्यं की गवेषणा करो। दूसरे किसी के कहने मात्र से अन्धश्रद्धापूर्वक मत मानो" ।
ऐसे आत्मज्ञान की प्राप्ति अध्यात्मसंवर की दिशा में प्रस्थान करने पर ही होती है। अध्यात्मसंवरसाधक स्वयं विवेक, विश्लेषण और अनुभव कर पाता है कि मैंने आँखों से जो कुछ देखा, अथवा कानों से जो कुछ रम्य, मनोज्ञ शब्द श्रवण किया, एवं अन्य इन्द्रियों से जो कुछ अब तक जाना-देखा, सुना या मन से जो कुछ सोचा- विचारा, प्राणों से जिस ऊर्जा शक्ति का सांसारिक क्रियाकलापों में व्यय किया, वह सब कुछ कर्मों के आनव (आगमन) और बन्ध का ही कारण बना। निर्जीव पौद्गलिक कर्मोपाधिक वस्तुओं का ही उससे ज्ञान किया, उन्हीं के पाने में, उन्हीं के संरक्षण में तथा उन्हीं के उत्पादन और वियोग की चिन्ता में अपनी शक्ति लगाई। अपनी आत्मा में जो तपःशक्ति या ऊर्जा शक्ति (तैजस्शक्ति) थी, उसे भी परपदार्थों को या सांसारिक विषयों को पाने में लगा दी। .
अगर उन जड़ पदार्थों और पंचेन्द्रिय विषयों में सुख-दुःख की, प्रिय-अप्रिय की, मनोज्ञ-अमनोज्ञ की कल्पना न की होती, अनुकूल के प्रति राग और प्रतिकूल के प्रति द्वेष (घृणा) की वासना न की होती तो सहज ही अध्यात्मसंवर हो जाता, और आत्मा की ज्ञान-दर्शन-सम्पदा, आत्मिक आनन्द की सत्ता प्राप्त हो जाती, तथा आत्मशक्तियों का साक्षात्कार हो जाता और उनका उपयोग आत्मविकास के सर्वोच्च शिखर तक पहुँचने में अनन्तज्ञान-दर्शन, अनन्त आत्मिक सुख और अनन्त आत्म शक्ति को पाने में किया
जाता।
अध्यात्मसंवर की दृष्टि भौतिकताप्रधान दृष्टि को बदलने से
परन्तु यह सब तभी हो सकता है, जब मनुष्य की दृष्टि बदले, मान्यता में परिवर्तन हो । वह इस तथ्य को हृदयंगम कर ले कि जड़ पदार्थों तथा इन्द्रिय विषयों में
१. (क) जावंतऽ विज्जा पुरिसा सब्वे ते दुक्खसंभवा । लुपति बहुसो मूढा संसारम्मि अनंतए ।
२.
(ख) एकः शत्रुर्न द्वितीयोऽस्तिशत्रुरझान तुल्यः पुरुषस्य राजन् ! येनावृतः कुरुते सम्प्रयुक्तो घोराणि कर्माणि सुदारुणानि ॥ "अप्पणा सच्चमेसेज्जा"
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-उत्तराध्ययन ६/१
- शान्ति पर्व - महाभारत
-उत्तराध्ययन ६/२
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