Book Title: Karm Vignan Part 03
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 480
________________ ९९६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) लोभ और मोह में पड़कर मनुष्य का जीवन सुखशान्तिमय नहीं हो सकता।" इस पर मैत्रेयी ने कहा- - "मुझे धन-सम्पत्ति नहीं चाहिए, अमरत्व का आत्मसुख का साधन बताइए।” मैत्रेयी ने बहुत आग्रह करने पर याज्ञवल्क्य ने सूत्ररूप में कहा - "अरी मैत्रेयी ! आत्मा ही द्रष्टव्य, श्रोतव्य, मन्तव्य (मनन करने योग्य) और निदिध्यासितव्य ( अनुभव करने योग्य) है। आत्मा को (अपने आप को ) जान देख लेने पर सब कुछ जान-देख लिया जाता है। यही अमरत्व का साधन है, आत्म कल्याण का मार्ग है।" अध्यात्म संवर की यात्रा का प्रथम पड़ाव : आत्मज्ञान-आत्मदर्शन सचमुच, अध्यात्म संवर की यात्रा का पहला पड़ाव आत्मज्ञान- आत्मदर्शन हैं। कठोपनिषद में ही आगे चलकर कहा गया है- “जो धीर पुरुष अपने में स्थित आत्मा को जान-देख लेते हैं, उन्हीं को शाश्वत (नित्य) सुख प्राप्त होता है, दूसरों को नहीं ।" वस्तुतः आत्मज्ञान की प्राप्ति सर्वोत्तम उपलब्धि है। आत्मा को यथार्थ रूप से जाम लेने पर व्यक्ति अध्यात्म संवर के पथ पर निर्विघ्नतापूर्वक चल सकता है। देवी भागवत के अनुसार "वह काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य, जो योग (आत्मा के परमात्मा से जुड़ने) के मार्ग में भयंकर विघ्नकारक शत्रु हैं, जैनदृष्टि से अध्यात्म संवर के पथ में रोड़े हैं, उनसे आत्मा को बचा लेता है। अध्यात्म संवर का साधक आत्मज्ञान के बल से कुपथगामी नहीं होता, तथा उपनिषदकार के शब्दों में यह आत्मविज्ञ शोक, चिन्ता से रहित होकर आनन्दपूर्वक जीता है और स्वयं किसी से भी नहीं डरता।” अध्यात्म संवर का आत्मज्ञानी साधक अपनी उपलब्ध आत्म-सम्पदारूपी फसल की रक्षा इन काम-क्रोध-लोभ-मोह आदि पक्षियों से करता रहता है। वह अध्यात्म संवर के लिए प्रतिक्षण इन बाधक तत्त्वों एवं आनवोत्पादक पदार्थों से बचने का पुरुषार्थ करता है। आत्मज्ञान का तात्पर्य अपने आपको तथा आत्मगुणों के पहचानना इसीलिए आचारांगसूत्र में सर्वप्रथम आत्मज्ञान की प्रेरणा दी गई है। आत्मज्ञान का तात्पर्य अपने आप को जानना है, और पर-पदार्थों या परभावों-विभावों से अपने आपको बचाना है, विरत करना है, परभावों से निर्लिप्त अनासक्त रहना है। आत्मा को यथार्थरूप से स्वयं के द्वारा ही जाना जा सकता है, जैसाकि आचारांग में कहा गया है-मैं कौन हूँ, क्या हूँ, कहाँ से और किसलिए आया हूँ।" आत्मा के अष्टविध रूपों में से कौन-से हेय, कौन-से उपदेय? जैनामों का अवलोकन करने पर यत्र-तत्र आत्मज्ञान की, आत्मा को आत्मभावों से भावित (भावितात्मा) तथा संवृतात्मा साधक की चर्चा आती है। जैनाचार्यो ने आत्मा को देखा, अनुभव किया और जान लिया कि आत्मा एक रूप में नहीं है। १. आचारांग. शु. १ अ. १, सु. ४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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