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९९४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्नव और संवर (६)
अल्पज्ञ मानव का अहंकार और मद बढ़ता है। अत्यधिक प्रशंसा और प्रसिद्धि के चक्कर में डाल देती हैं। मनुष्य की आध्यात्मिक प्रगति इनसे रुक जाती है।
जो लोग भौतिक सिद्धियों को पाने में लग जाते हैं, वे चित्त पर्याय में ही उलझे रहते हैं। वे चित्त, मन, बुद्धि आदि से ऊपर नहीं उठ पाते । वे आत्मा के शुद्ध अस्तित्व को पाने का पुरुषार्थ नहीं कर पाते ।
भगवान् महावीर मन, बुद्धि, चित्त आदि से ऊपर उठकर आत्मज्ञान की साधना में, अस्तित्व तक पहुँचने की साधना में लगे हुए थे।
एक शिष्य ने बारह वर्ष लगाकर पानी पर चलने की विद्या में सफलता प्राप्त कर | गुरु के पास आया। गुरु के समक्ष अपनी प्रशंसा करते हुए उसने कहा- “अब मुझे नदी पार करने के लिए नौका का सहारा नहीं लेना पड़ेगा। मैं स्वयं पानी पर चलना सीख गया हूँ।”
गुरु आत्मज्ञानी साधक थे। उन्होंने कहा- "अरे भोले ! जो काम दो पैसे खर्च करके किया जा सकता है, उसके लिए तूने जीवन के १२ वर्ष खो दिये। इसकी अपेक्षा तो तू १२ वर्ष तक आत्म विकास की साधना करता तो तुझे आत्म ज्ञान प्राप्त हो जाता।" अध्यात्म संवर की साधना के साथ प्रसिद्धि-सिद्धि आदि का निषेध
निष्कर्ष यह है कि अध्यात्मसंवर की साधना के साथ किसी प्रकार की इहलौकिक, पारलौकिक कामना, वासना, प्रसिद्धि एवं प्रशस्ति की लालसा, भोगों की प्राप्ति की वांछा या पूजा सत्कार सिद्धि या उपलब्धि की इच्छा नहीं होनी चाहिए।
भगवान् महावीर ने तपस्या और त्रिरनरूपधर्माचरण तथा सामायिक पौषध आदि धर्मासाधनाओं के साथ किसी प्रकार की इहलौकिक, पारलौकिक तृष्णा, वासना, भोगलिप्सा, यशकीर्ति आदि की कामना का सख्त निषेध किया है।"
आत्मवान् और अनात्मवान् की पहचान
स्थानांग सूत्र में बताया गया है कि जो (आत्मज्ञान से रहित) अनात्मवान् होते हैं, उनके लिए निम्नोक्त छह स्थान अहित, अशुभ, अक्षमता, अनिःश्रेयस एवं अननुगामिता के कारण बनते हैं। वे हैं-पर्याय, परिवार, श्रुत, तप, लाभ एवं पूजा सत्कार। इसके विपरीत जो आत्मवान् (आत्मज्ञानी) होते हैं, उनके लिए पूर्वोक्त छहाँ स्थान हित, शुभ, क्षमता, निःश्रेयस तथा अनुगामिता के कारण बनते हैं। तात्पर्य यह है कि दीर्घ दीक्षा-पर्याय या अधिक अवस्था, बड़ा शिष्यादि परिवार अथवा कुटुम्ब परिवार,
महावीर की साधना का रहस्य से भावांश ग्रहण, पृ. ४९
(ख) देखें - दशवैकालिक अ. ९ उ. ३ में- न इहलोगट्ठय़ाए तवमहिडिज्जा तथा आयार
महिडिज्जा इत्यादि पाठ |
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