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९९२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
तप आदि की परिक्रमा होती है। इसके अतिरिक्त गुप्ति, समिति, परीषह - विजय, कषाय-विजय, चारित्रपालन आदि भी अध्यात्म-संवर के अंग हैं। अर्हत-सम्प्रेक्षण ही शुद्ध आत्म सम्प्रेक्षण है : अध्यात्म संघर के सन्दर्भ में,
आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मा के इस शुद्धस्वरूप में स्थिर रहने, भावितात्मा बने रहने एवं इस एकत्वसम्प्रेक्षा से राग-द्वेषादि विकारों से अलग होने की एक सुन्दर प्रक्रिया बताई है - " जो व्यक्ति अर्हत् को समस्त पर्यायों (समस्त आत्मगुणों) के सहित जानता, देखता है, वह अपनी आत्मा को सम्यक्रूप से जान लेता है। जो इस प्रकार अर्हत् को जानता- देखता है, उसका मोह विलय (विनष्ट) हो जाता है। मोह के कारण ही राग-द्वेष. क्रोधादि कषाय होते हैं, और आत्मा कर्मफल से मलिन-अशुद्ध होता है। अतः अर्हत् का ध्यान करना, अपनी शुद्ध आत्मा का ध्यान करना है; क्योंकि अर्हत् की आत्मा और अपनी शुद्ध आत्मा में मूलतः कोई अन्तर नहीं है।
वर्तमान में अन्तर है तो केवल कर्मोपाधिक है। उस अन्तर को मिटाने के लिए अध्यात्म संवर के सन्दर्भ में अपनी आत्मा के शुद्ध और वास्तविक स्वरूप को जानने-देखने तथा आत्मा के अस्तित्व को उद्दीप्तं एवं व्यक्त करने के लिए यह सुन्दर प्रक्रिया है।
अर्हत् सम्प्रेक्षण से स्वभावरमण तारूप संवर, परभावरमणतान्रिरोध
तात्पर्य यह है कि जो अर्हत् के गुणों का ध्यान एकाग्रतापूर्वक चिन्तन करता है, वह प्रत्येक स्थान में तथा स्वयं में भी ज्ञान दर्शनमय आत्मा को देखता है। इस कारण इन्द्रियों, मन आदि उपकरणों द्वारा होने वाले क्रियाकलापों का वह ज्ञाता-द्रष्टा बना रहता है।
वह प्रतिक्षण जागरूक रहकर यही सोचता है कि इन उपकरणों से आत्मा यदि अज्ञान, मोह, राग-द्वेष, कषाय आदि विभावों- आत्म बाह्य भावों में पड़ता है, तो वह अपना ही अहित करता है, इनके वश में होकर आत्मा अपना ही शत्रु बन जाता है। इसके विपरीत जब आत्मा इन उपकरणों के द्वारा जानना - देखना आदि क्रियाएँ करके उनमें राग-द्वेषादि का संवेदन नहीं करता, केवल ज्ञाता द्रष्टा बना रहता है, तो वह आत्मा अपने लिए हितैषी मित्र बनता है।
ऐसे ज्ञान- दर्शन- चारित्रविनयरूप अध्यात्मभाव में लीन रहने वाले साधक को सूत्रकृतांग में श्रेष्ठ पुण्डरीक कहा है, वस्तुतः ऐसे व्यक्ति की विवेकप्रतिभा जागृत हो जाती है। ऐसा आत्मद्रष्टा साधक शरीरादि के अणु-अणु में आत्मा का सम्प्रेक्षण करता है। आत्मा के द्वारा आत्मा का सम्प्रेक्षण करने से, या ध्यान करने से जो आत्मदर्शन होता है, उससे आत्मा से सम्बद्ध शरीर और शरीर से सम्बद्ध - सजीव-निर्जीव पदार्थों का
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