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९९० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६). उन्हें जरा भी कष्ट महसूस होता तो वे जीवित ही नहीं रह पाते। किन्तु वे मृत्यु के उस पार अमरत्व तक पहुँच चुके थे। . आत्मा में तल्लीन साधक पर सर्पविष का प्रभाव नहीं ... दक्षिण भारत के किसी जंगल में एक आत्मलीन साधक ध्यान में खड़े थे। कुछ. चरवाहों ने देखा कि कालो साँप उन्हें इस रहा है, वह बार-बार उनके पैरों में काटते-काटते थक कर चला गया। पर साधु ध्यान से जरा भी विचलित नहीं हुए। वे पर्वत की तरह अडोल खड़े रहे। ___ध्यान खुलने पर जब चरवाहों ने उनसे पूछा, “आपको पता है, एक साँप ने आपको बार-बार काटा था, क्या आपको उसका जहर नहीं चढ़ा ?" .. .
साधु ने मानो कुछ हुआ ही नहीं था, इस प्रकार सहज भाव से उत्तर दिया"आया होगा साँप,काटा होगा। शरीर पर क्या हो रहा है, इसका मुझे बिलकुल ही आभास नहीं हुआ, क्योंकि मैं तो अपनी आत्मा में तल्लीन था।'' . ___यह है, आत्मा का अनन्यशरणरूप अध्यात्म संवर जो उसका ही अभिन्न अंग
समाधिमरण की आराधना : अध्यात्म संवर की प्रक्रिया
यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जब व्यक्ति श्रद्धापूर्वक किसी अध्यात्म साधना में लग जाता है, तब उसे कष्ट का वेदन बहुत ही कम होता है, आत्मज्ञानी को तो होता ही नहीं। संलेखना-संथारापूर्वक समाधिमरण की आराधना भी अध्यात्म सँवर की प्रक्रिया है; क्योंकि उसमें व्यक्ति का अन्तरात्मा देह, गेह, संघ, परिवार, परिजन आदि सबसे
१. (क) देखें, इह आणाकंखी पडिए अणिहे एगमप्पामं संपेहाए, धुणे सरीरं, कसेहि अप्पाणं जरेहि अप्पाणं।
.. -आचारांग १/४/३/१४१ की व्याख्या (ख) एकाकी आत्म-सम्प्रेक्षण के प्रेरक श्लोक
'एकः प्रकुरुते कर्म, भुनक्त्येकश्च तत्फलम् । जायते म्रियते चैकः, एको यात भवान्तरम्।' ॥१॥ सदैकोऽहं न मे कश्चित् नाऽहमन्यस्य कस्यचित् । न तं पश्यामि यस्याऽहं, नाऽसौ भावीति यो मम ॥२॥ संसार एवाऽयमनर्थसारः कः कस्यः कोऽत्रस्वजनः परो वा।' . सर्वभ्रमन्ति स्वजनाः परे च; भवन्ति भूत्वा, न भवन्ति भूयः ॥३॥ विचिन्त्यमेतत् भवताऽहमेको न मेऽस्ति कश्चित्परतो न पश्चात्। स्वकर्मभिभ्रान्तिरियं ममैव अहं पुरस्तादहमेव पश्चात् ॥४॥
-आचारांग विवेचन (आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर) पृ. १३५ (ग) पणया वीरा महवीहि ।
-आचारांग श्रु. १ अ. उ. ३ स. २१ (घ) जैनधर्म : अर्हत और अर्हताएँ से भावांश ग्रहण, पृ. १०५-१०६
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