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अध्यात्म-संवर का स्वरूप, प्रयोजन और उसकी साधना ९८५
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इसका रहस्य यह है कि मन, बुद्धि, चित्त, हृदय, प्राण, इन्द्रियाँ आदि सब मूल आत्मा के द्वारा ही अनुप्राणित, प्रेरित और संचालित होते हैं। आत्मा के कारण ही शरीरादि प्राप्त हुए हैं। जब आत्मा निकल कर अन्यत्र चली जाती है, तब स्थूल शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रिय, प्राण आदि सब यहीं रह जाते हैं, स्थगित और नष्ट हो जाते हैं।
इसलिए आत्मद्रष्टा जब सर्वत्र अणु-अणु में आत्मा को ही देखता है, तब वह सिर्फ आत्मा को ही देखता है, आत्मा से पृथक् होने से इनकी ओर उसकी दृष्टि नहीं टिकती, इन्हें वह अपने नहीं जानता मानता। इतना ही नहीं, वह 'स्व' (आत्म) भाव में इतना तल्लीन और दृढ़ हो जाता है कि न तो आत्मबाह्य भावों पर दृष्टि रखता है, और न ही परभावों या विभावों में रमण करता है।
एकमात्र शुद्ध आत्मा को जानना-देखना : आत्मदर्शन
· आचार्य अमितगति के शब्दों में- “ एकमात्र मेरी आत्मा शाश्वत है, शुद्ध है, कर्मोपाधि से रहित है, ज्ञानस्वरूप है, दर्शनस्वरूप है, आनन्दमय है, शक्तिस्वरूप है। शेष सब आत्मबाह्य भाव-परभाव या विभाव (कषायादि विकार) हैं। शरीर, इन्द्रियाँ, जड़ पदार्थ, स्वजन-परिजन आदि सब कर्मों से जनित या प्राप्त हैं, ये सब कर्मोपाधिक हैं। ये शाश्वत नहीं हैं, न ही शुद्ध हैं।"
आत्मा के साथ एकत्व की प्रतीति ही सच्चा आत्मदर्शन
जब इस प्रकार की आत्मैकत्व प्रतीति या आत्मा के साथ अभिन्नता का दर्शन हो जाता है, तभी साधक सच्चा आत्मज्ञाता- द्रष्टा बनता है, अध्यात्म संवर में सफल होता • है। ऐसे व्यक्ति का भेद ज्ञान सुदृढ़ हो जाता है। उसे यह दृढ़ निश्चय हो जाता है कि शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीव-निर्जीव पदार्थ अन्य हैं, मैं ( आत्मा और आत्म-सम्बद्ध गुण) अन्य हूँ। वह अपने अनन्त शक्तिमान् शुद्ध निर्दोष आत्मा को शरीर से उसी प्रकार पृथक समझ लेता है, जिस प्रकार म्यान से तलवार अलग की समझी जाती है।
वह मृत्यु का भय उपस्थित होने पर भी घबराता नहीं, उसके तन-मन में भय और कम्पन नहीं होता। वह समभाव में स्थिर रहता है। हर्ष - शोक के प्रसंगों तथा इष्टवियोग एवं अनिष्टसंयोग के अवसर पर वह समत्व में - ज्ञानादिमय शाश्वत आत्मा में स्थिर रहता है।
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(क) “जे अणण्णदंसी से अणण्णारामे, जे अणण्णारामे से अणण्णदंसी ।”
—आचारांगसूत्र १/२/६ (ख) चेतना का ऊर्ध्वारोहण में प्रकाशित आचार्य योगीन्दु का उद्धरण, पृ. ४० (ग) एकः सदा शाश्वतिको ममात्मा, विनिर्मलः साधिगम स्वभावः ।
बहिर्भवाः सन्त्यपरे समस्ताः न शाश्वताः कर्मभवाः स्वकीयाः ॥
शरीरतः कर्तुमनन्तशक्तिं विभिन्नमात्मानमपास्तदोषम् । जिनेन्द्र ! कोषादिव खड्गयष्टिं तव प्रसादेन ममाऽस्तु शक्तिः ॥ - वही, श्लो. २
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- अमितगति सामायिकपाठ
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