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अध्यात्म-संवर का स्वरूप, प्रयोजन और उसकी साधनाः ९८३
उठकर इन सबसे अतीत होकर आत्मा का निरीक्षण तथा अपनी आत्मा की शक्तियों
और सम्पदाओं का ज्ञान करते हैं। इसलिए दशवकालिक में आत्मज्ञान-दर्शन करने के लिए कहा गया (अपने माने हुए ग्रन्थों, पन्थ; मत आदि तथा व्यक्तियों के प्रति) रागद्वेष से दूर सम होकर अपनी आत्मा को अपने से जानो। .. अध्यात्म संवर आत्म-भावों से आत्मा को भावित करने से
शास्त्रों में जहाँ-जहाँ अध्यात्म संवर की बात कही गई है, वहाँ आत्मा को भावित करने का अध्यात्मरत-आत्मलीन होने का विधान किया है। किसी साधक के दीक्षित हो जाने के पश्चात् उसके लिए कहा गया है-"संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।* अर्थात् वह संयम और बाह्याभ्यन्तर तप से आत्मा को सतत भावित-वासित करता हुआ विचरण करे।
- आत्मभाव में रमण करने वाला व्यक्ति प्रति क्षण आत्मा के हित की ही बात सोचता है, आत्म-कल्याण की बात ही बोलता है, जो कुछ करता है, वह आत्म-विकास को लक्ष्य में रखकर।
.. इस प्रकार आत्मदर्शन या आत्म-सम्प्रेक्षण से क्या होता है ? उसके लिए शास्त्रकार स्वयं कह देते हैं-स्थूल शरीर के साथ राग-द्वेष का जो धागा जुड़ा हुआ है, उससे वह अपने को पृथक् समझने लगता है। राग-द्वेष के प्रसंगों में ज्ञानचेतना के द्वारा सम रहने का अभ्यास करता है। .. राग-द्वेष एवं मोह के कारण जो कर्मों का तीव्रता से आगमन-आनब होता था, वह रुक जाता है, यही अध्यात्म संवर है।
. पंचास्तिकाय की वृत्ति में कहा गया है-“जीव के मोह, राग और द्वेष के परिणामों का निरोध होना, तथा जीव के उन परिणामों से कर्मानव के परिणामों का निरोध हो जाना (अध्यात्म) संवर है।"
१. उपासक दशांग १/७६ . २.. (क) जो पुव्वरत्ता वररत्तकाले संपेक्खए अप्पगमप्पएणं। .
किं मे कडं, किं मे किच्चसेसं, किं सक्कणिज्जं न समायरामि। इत्यादि दशवकालिक की द्वितीय चूलिका की गाथा १२ से १४ की व्याख्या (आगम प्रकाशन समिति ब्यावर)
पृ. ४१९ (ख) समयसार, तात्पर्यवृत्ति २९६ (ग) अप्पा अप्पम्मिरओ।
-प्रवचनसार (घ) चेतना का ऊहिण से भीवांश ग्रहण, पृ. ४१ (ङ) वियाणिया अप्पगमप्पएणं, जो रागदोसेहिं समो से पुज्जो।
. -दशवैकालिक अ. ९, उ. ३, गा. ११
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