________________
1
९८२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
आचारांग नियुक्ति में कहा है-अंधा कितना ही बहादुर हो, वह शत्रुसेना को पराजित नहीं कर सकता, इसी प्रकार अज्ञानी साधक भी अपने विकारों को नहीं जीत सकता । विराग के चिराग में आत्मज्ञान की ज्योति हो, तभी बाह्याभ्यन्तर संयोगों से अलिप्त एवं अनासक्त रहने में सफलता मिलती है। यही अध्यात्म संवर का प्रयोजन है। कठोपनिषद् में भी आत्मज्ञान का महत्व बताते हुए कहा गया है - "उस महान और विभु (सर्वसमर्थ ) आत्मा को जानकर बुद्धिमान् (धीर) पुरुष कभी शोकाकुल नहीं होता। बल्कि उस अनादि, अनन्त तथा महत्तत्त्व (बुद्धि) से पर एवं ध्रुव (निश्चल) आत्मा को जानकर मनुष्य मृत्यु के मुख से छूट जाता है । २.
आत्मा को आत्मा से जानना अध्यात्मसंवर है
दशवैकालिक सूत्र में आध्यात्मिक संवर के लिए स्पष्ट कहा गया है - "आत्मा को आत्मा से जानो ।” प्रायः व्यक्ति आत्मा को पुस्तकों, ग्रन्थों या प्रवचनों के द्वारा जानने का उपक्रम करता है। यह जानना दूसरे के शब्दों द्वारा है।
इसके लिए 'समयसार' में आत्मा को सम्यकरूप से जानने के लिए आत्मा में आत्मा का ध्यान करने की बात कही है।
‘दशवैकालिक सूत्र' में जहाँ आत्मा को आत्मा से सम्प्रेक्षण करने की बात कही है, वहाँ समय तथा ध्यान में चिन्तन का क्रम भी बताया है। वहाँ रात्रि का प्रथम प्रहरं और अन्तिम प्रहर, एकान्त में, स्वयं ही साधक को अपनी आत्मा से वार्तालाप करने का सुझाव दिया है। इससे अपने गुणदोष, अच्छे-बुरे कार्यों, कर्तव्यों और दायित्वों तथा अपनी स्खलनाओं का स्वयं अन्तर्निरीक्षण करके साधक अध्यात्म संवर का मार्ग प्रशस्त करता है। आत्मजागरण, स्वकर्तव्य एवं आत्मशुद्धि और आत्मशक्ति का भान भी इसी प्रकार आत्मनिरीक्षण से होता है।
सच्चा आत्मज्ञान या आत्मदर्शन : कब होता है, कब नहीं?
वस्तुतः हम मन और इन्द्रियों के द्वारा आत्मा को देखते हैं; जिनके द्वारा हमारी धारणाएँ और संस्कार बने हुए हैं, हमारी आदतें निर्मित हुई हैं। सच्चे माने में आत्मदर्शन या आत्मा का ज्ञान तभी हो सकता है, जब हम धारणाओं, परम्पराओं, शास्त्रवाक्यों, इन्द्रियों और मन के द्वारा होने वाली जानकारी तथा संस्कारों और आदतों से ऊपर
9.
२.
'न जिणइ अंधोपराणीयं । "
(क) महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति ।
(ख) अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं, निचाय्य तन्मृत्युमुखात् प्रमुच्यते ।
- आचारांग निर्युक्ति २१९
Jain Education International
- कठोपनिषद् २/१/४, १/३/१५
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org