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अध्यात्म-संवर का स्वरूप, प्रयोजन और उसकी साधना ९५७
वस्तुस्थिति यह है कि भौतिक सम्पत्ति वाला भी सम्पत्ति का निजी उपभोग उतना ही कर पाता है, जितना एक निर्धन या मध्यवित्त कर पाता है। अतिरिक्त जमा की हुई सम्पत्ति उसमें तथा उसके परिवार में अगणित उलझनें पैदा कर देती है, बंटवारा करते समय भी परिवार में परस्पर मनमुटाव, शत्रुता, वैमनस्य आदि पैदा हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त अधिक सम्पत्ति भी परिवार में व्यक्तिगत दोष दुर्गुणों, मांसाहर, मद्यपान, द्यूतक्रीड़ा आदि अनेक दुर्व्यसनों की फौज खड़ी कर देती है ।
अध्यात्म संवर के लक्ष्य के अभाव में अथवा आध्यात्मिक सम्पदाओं के ज्ञान के अभाव में उन वृद्धिंगत भौतिक सम्पदाओं का प्रापास्रव में ही अधिक उपयोग होता है, सदुपयोग नहीं बन पड़ता है। यदि उनका उच्छृंखल उपभोग एवं उद्धत प्रदर्शन किया जाए तो भी वे आनव को बढ़ाने में ही सहायक होती हैं। उसकी प्रतिक्रिया भी परिवार में घातक विद्रोह तथा उत्तराधिकारियों की दुरभिसंधि को साथ लेकर आ धमकती है।
अतः जितना श्रम और मनोयोग भौतिक सम्पदाओं के उपार्जन में लगाया जाता है, उतना ही ध्यान एवं प्रयास अध्यात्म-संवर के माध्यम से आत्मिक गुणों की अभिवृद्धि एवं उपलब्धि पर केन्द्रित किया जाए तो निःसन्देह उसका विपुल लाभ, असाधारणरूप से उपलब्ध होता है। बल्कि आध्यात्मिक सम्पदा उपार्जन करने वाले व्यक्तियों का अन्तःकरण सद्गुणों की सौरभ से सतत सुरभित रहता है; आत्मसन्तोष का आनन्द उनके तन-मन पर छाया रहता है; स्वास्थ्य सुषमा भी अधिकाधिक बढ़ती जाती है। परिष्कृत विचार वैभव, स्वभाव एवं आचरण के कारण उस अध्यात्म संवरसाधक का व्यक्तित्व निखर जाता है। अनेक जिज्ञासुजन तथा विषयकषायों के अत्यधिक सम्पर्क के कारण सन्तप्तजन उसके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उससे मार्गदर्शन, सुझाव, परामर्श 'ग्रहण करने आते हैं और सद्भावना की वर्षा करते हैं।
वास्तव में, आध्यात्मिक सम्पदायुक्त पुरुष को भौतिक सम्पदाओं से वंचित नहीं रहना पड़ता । कदाचित् वे न मिलें तो भी उसकी आन्तरिक विशेषताएँ संवरप्रधान दृष्टि, संतोष, निःस्पृहता एवं परपदार्थों के प्रति निरपेक्षता उसे आत्मानन्द प्राप्त कराने के लिए पर्याप्त होते हैं। जबकि अध्यात्म संवर से रहित भौतिक सम्पदाएँ आन्तरिक उद्वेगों तथा बाह्य आक्रमणों से व्यक्ति को चिन्तित, व्यथित करती रहती हैं।
आत्मा को बहिर्मुखी होने से बचाकर अन्तर्मुखी बनाओ, आत्मप्रेक्षण करो
सांसारिक प्राणी की प्रायः यही स्थिति है। इस स्थिति से छुटकारा पाने, पूर्वकृत कर्मों से छुटकारा पाने तथा नये-नये कर्मों के आगमन (आन) से दूर रहने हेतु समस्त
(क) अखण्ड ज्योति मई, १९७४ से भावांश ग्रहण पृ. २० (ख) देखें ठाणांगसूत्र स्थान ८ में आचार्य की आठ सम्पदाएँ अखण्ड ज्योति मई १९७४ से भावांश ग्रहण पृ. २०
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