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९६६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
सीधे टेढ़े मार्गों से बहती हुई अन्त में समुद्र में जाकर मिल जाती हैं, उन सबका अन्तिम लक्ष्य समुद्र होता है, उसी प्रकार सीधे टेढ़े मार्ग से चलकर अन्त में परमात्मरूप अथवा कर्म-मुक्तिरूप मोक्षरूपी अन्तिम लक्ष्य में जाकर सभी मिल जाते हैं।
भगवान् महावीर ने कहा- "मन, वचन, काया की चंचलता से कर्मों का आ ( आगमन) होता है, उसे रोको-संवर करो। साथ ही उन्होंने हिंसादि आम्रवों तथा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगों से कर्मों के आगमन (आम्लव) का प्रतिपादन किया।
देखना चाहिए कि श्वास-संवर या श्वासोच्छ्वासबल प्राण- संवर तथा पूर्वोक्त. आस्रवों के निरोधरूप संवर में क्या अन्तर है ? दोनों के परिणाम समान हैं। जैसेभगवान् महावीर ने मनोनिरोध की बात इसलिए कही कि मन का निरोध नहीं होगा तो श्वास-निरोध नहीं होगा, श्वासनिरोध होगा तो मनोनिरोध अवश्य होगा। मनःसंवर और श्वास-संवर अन्योन्याश्रित
प्राणतत्त्व का या श्वासरूप प्राण वायु का मन के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है । मन पर अंकुश रखना उसके साथी प्राण के हाथ में है। इसे यों भी समझा जा सकता है-मन की चंचलता को रोकना, मन को स्थिर करना प्राणवायु - श्वास की स्थिरता पर निर्भर है।
मन की चंचलता प्रसिद्ध है । वह क्षण-क्षण में अस्त-व्यस्त बना इतस्ततः उड़ता रहता है। एक स्थान में स्थिर और एकाग्र न होने से किसी भी महत्त्वपूर्ण दिशा में गहराई से चिन्तन-मनन करना तथा तन्मयतापूर्वक वह कार्य करना संभव नहीं होता। मानसिक चंचलता संवर पथ की सबसे बड़ी बाधा है। इसके रहते प्राणबल-संवर या श्वास संवर में सफलता नहीं मिल सकती। इसी प्रकार श्वास शान्त और स्थिर हुए बिना मन शान्त और स्थिर नहीं हो सकता। हठयोग प्रदीपिका में इसी तथ्य की ओर इंगित किया गया हैजिसने प्राणवायु (श्वास) को बांध लिया - जीत लिया, उसने मन को बाँध - जीत लिया। पवन (श्वास) के स्थिर होते ही मन स्थिर होता है, और मन के स्थिर होते ही श्वास स्थिर हो जाता है। चित्त की चंचलता के दो ही कारण हैं-एक वासना का और दूसरा प्राणवायु का चंचल होना। इन दोनों में से एक के नष्ट (लय) हो जाने पर दोनों का नाश हो जाता है।"
१ (क) अखण्ड ज्योति, अप्रेल १९७७ से भावांश ग्रहण, पृ. ४४
(ख) 'पवनो बध्यते येन मनस्तेनैव बध्यते । मनश्च बध्नते येन पवनस्तेन बध्नते ।'
हेतु द्वयं तु चित्तस्य वासना च समीरणः । तयोर्विनष्ट एकस्मिंस्तौ द्वावपि विनश्यतः ।'
- हठयोगप्रदीपिका ४।२१-२२
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