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९६८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्नव और संवर (६)
मनःसंवर के लिए श्वास (प्राण) संवर और श्वास संवर के लिए मनः संवर अनिवार्य
• इन सब अनुभूत तथ्यों के प्रकाश में यह स्पष्ट हो जाता है कि मनोनिग्रह, मनोजय या मनः संवर के लिए प्राण-निग्रह, प्राणविजय, प्राण- संवर या श्वास-संवर ( श्वासोच्छ्वास-बल-प्राण- संवर) का होना अनिवार्य है।
दोनों में भाषाभेद हैं, परिणामभेद या लक्ष्यभेद नहीं
मन में जब उद्वेग होता है, चंचलता होती है, चिन्ता, भय या आवेश होता है, तब श्वास तेज हो जाता है; इसके विपरीत उपवास से, ऊनोदरी (अल्पाहार) से,. हलके' सुपाच्य आहार लेने से स्वास की गति मन्द, शान्त और संयत हो जाएगी । श्वास शान्त और संयत होते ही मन या चित्त शान्त, संयत और स्थिर हो जाएगा। इसी प्रकार मन प्रसन्न, शान्त और स्थिर होगा, तो श्वास भी शान्त, संयत और स्थिर हो जाएगा।
इससे उलटे रूप में कहें तो यदि श्वास तीव्र गति से चलेगा, कषायों के आवेग, आवेश आदि के कारण तीव्र होगा, शान्त और नियंत्रित नहीं होगा तो मन भी अशान्स, अस्थिर और उच्छृंखल होगा।
इसी प्रकार मन भी उद्विग्न, चंचल, आवेशग्रस्त, भयादि ग्रस्त होगा, अस्थिर एवं अशान्त होगा तो श्वास भी अस्थिर, चंचल और अशान्त तथा अनियंत्रित होगा । अतः श्वास का निरोध या निग्रह करना श्वास-संवर है, प्राण संवर है, और मन का निरोध या निग्रह करना मनः संवर है।
इसलिए श्वास सवर कहें या मनःसंवर कहें या चित्त-संवर दोनों का परिणाम एक ही है- मनोयोग, वचनयोग और काययोग की चंचलता एवं प्रवृत्ति का निरोध, मन-वचन-काय का संवर या नियंत्रण - निग्रह। भाषाभेद है लक्ष्यभेद या परिणामभेद नहीं। स्थूल दृष्टि से देखने पर ये दोनों प्रवृत्तियाँ और पद्धतियाँ पृथक-पृथक दिखाई देती हैं, किन्तु वास्तव में वे पृथक्-पृथक् नहीं है। इसलिए भगवान् महावीर ने कहा-' संबर करो, या तप करो। और योग विद्याविशारदों ने कहा-श्वास-संवर या श्वासनिरोध, प्राणनिग्रह या प्राणनिरोध करो। दोनों के परिणाम में कोई अन्तर नहीं है। श्वास शान्त और नियंत्रित होने पर मन, वचन और काया तीनों ही नियंत्रित, शान्त और स्थिर होंगे।
द्विविधः चित्तशान्ति : श्वास से श्वास को नियंत्रित कीजिए
श्वास प्राणवायु है। यदि प्राणवायु (प्राण) पर नियंत्रण किया जा सके, उसे
9. महावीर की साधना का रहस्य से यत्किंचिद् भावग्रहण पृ. ६८
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