________________
प्राणबल और श्वासोच्छ्वास - बलप्राण- संवर की साधना ९५९
रहते हैं, उन्हें इस प्रक्रिया से क्रियाशील और सशक्त बनाया जाए। साधारणतया लोग हलकी सांस लेते हैं, जिससे फेफड़ों का मध्यभाग ही प्रभावित होता है। उनके ऊपर के और नीचे के भागों में थोड़ी-सी हवा पहुँचती है। वहाँ एक प्रकार से निष्क्रियता छाई रहती है। जहाँ निष्क्रियता होगी, वहाँ प्रायः दुर्बलता संभावित है। फेफड़ों की पूरी सफाई न होने से फेफड़े सम्बन्धी अनेक रोगों के या रोग-कीटाणुओं के उत्पन्न होने का खतरा रहता है।
वर्तमान में क्षय, खांसी, प्लूरसी, दमा, सांस फूलना, ब्रोंकाइटिस आदि रोग फेफड़ों की दुर्बलता के कारण ही बढ़ते हैं और यह दुर्बलता उत्पन्न होती है - फेफड़ों के पूरे भाग को पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन की कमी तथा समुचित श्रम करने का अवसर न मिलने से । इस विपत्ति से बचाने के लिए गहरे सांस लेने के जो तरीके खोजे गए हैं, आरोग्य विज्ञान के क्षेत्र में उन्हें ही 'प्राणायाम' कहा जाता है। यह शारीरिक दृष्टि से श्वासोच्छ्वासबल-प्राण की साधना हुई । "
प्राणायाम से गहरे श्वास लेने का लाभ, महत्व और उद्देश्य
इस प्राणायाम में गहरी सांस लेने का अभ्यास किया जाता है। साधना के समय . इस बात का प्रयास विशेषरूप से किया जाता है कि सामान्य समय में भी उथले सांस लेने की आदत को बदला जाए और उसके स्थान पर सदा के लिए गहरा सांस लेने की आदत डाली जाए। इससे स्वास्थ्य संवर्धन, दीर्घजीवन एवं श्वासोच्छ्वास प्राणबल-संवर (श्वाससंवर) की साधना में आगे बढ़ने की सम्भावनाएँ बढ़ती हैं।
सामान्यतया प्रति मिनट में १८ बार हमारे फेफड़े फूलते- सिकुड़ते हैं । २४ घंटे में इस प्रक्रिया की २५९२० बार पुनरावृत्ति होती है। प्रत्येक श्वास में प्रायः ५०० सी. सी. वायु का उपयोग होता है, जबकि एक स्वस्थ शरीर की आवश्यकता के अनुसार हर सांस में १२०० सी. सी. वायु का उपयोग होना चाहिए। उथली सांस लेने वाले लोग आवश्यकता को देखते हुए आधे से भी कम वायु प्राप्त करते हैं। यह जानबूझ कर शरीर को रुग्ण रखने का तरीका है जिसमें आधे पेट भोजन और आधी प्यास पानी के समान शरीर को दुर्बल बनाये रखा जाता है।
प्राणायामनिष्णात सदा से गहरी सांस लेने की आवश्यकता बताते हुए कहते हैं'' उथली सांस लेने की गलत आदत से फेफड़े कमजोर पड़ते हैं और उनमें क्षय, दमा, खांसी, सीने का दर्द आदि अनेक रोगों का खतरा बना रहता है।' डॉ. मेकडावेल का कथन है-" गहरी सांस लेना केवल फेफड़ों को ही नहीं, पेट के पाचनयंत्रों को भी परिपुष्ट बनाना है। रक्तशुद्धि की दृष्टि से गहरा श्वास-प्रश्वास बहुमूल्य दवा और उपचार से भी बढ़कर लाभदायी है।”२'
१. वही, सितम्बर १९७७ से भावांश ग्रहण, पृ. ३१
२. वही, जून १९७४ से साभार उद्धृत पृ. २३-२४
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org