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९६२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
प्राण) को पहुँचाना, मिलाना ही आध्यात्मिक प्राणायाम का स्वरूप है। इससे अन्तरात्मा के विकास को अवसर मिलता है; और श्वासोच्छ्वास बलप्राण-संवर का पथ प्रशस्त हो जाता है। साथ ही आत्मोत्कर्ष का वह द्वार खुलता है, जिसमें प्रवेश करने के पश्चात् व्यक्ति क्रमशः अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर तेरहवें-चौदहवें (सयोगी केवली-अयोगी केवली) गुणस्थान तक पहुँच जाता है।' आत्मप्राण और ब्रह्मप्राण का समन्वय वैदिक दृष्टि से
ऐतरेयोपनिषद् में व्यक्ति (आत्म) प्राण और ब्रह्मप्राण के समन्वय की चर्चा है कि प्राण एक है, किन्तु वह दो देवताओं में दो पात्रों में भरा हुआ है। शिव पुराण में प्राणायाम के दो प्रकारों का उल्लेख है-“प्राणायाम सगर्भ और अगर्भ, दो प्रकार का होता है। जप और ध्यान से युक्त प्राणायाम सगर्भ होता है, उनसे रहित होता है, वह अगर्भ कहलाता है।" योगकुण्डल्युपनिषद् में बताया गया है कि "उस (आध्यात्मिक) प्राणायाम के दो साधन मुख्य हैं-(१) सरस्वती (सुषुम्ना नाड़ी) का चालन और (२) प्राणरोध। अभ्यास से कुण्डली मारे बैठी कुण्डलिनी सीधी हो जाती है।"
आध्यात्मिक प्राणायाम से तात्पर्य है-ब्रह्माण्डीय चेतना को जीव चेतना में सम्मिश्रित करके जीवसत्ता का अन्त तेजस् जागृत करने वाला श्वासोच्छ्वासबलप्राणरूप प्राणयोग। ऐसा अन्तःऊर्जा-उत्पादक प्राणायाम प्राणबलसंवर-साधना में सहायक
ऐसे विशिष्ट अन्तःऊर्जा उत्पादक प्राणायाम प्रयोगों में साहसिकता एवं सक्रियता प्रधान है। आलस्य और प्रमाद जैसी जीवन-सम्पदा (प्राण-बल-सम्पदा) को पंगु बना देने वाली दुःखद विडम्बनाओं को निरस्त करने में इस श्वासोच्छ्वास प्राणबल संवर रूप प्राणायाम की साधना से बहुत सहायता मिलती है, उत्साह जगता है और स्फूर्ति बढ़ती है।
प्राणसंवर की इस प्राणायाम क्रिया के साथ मनोयोग जुड़ा रहने से ही सफलता के आधार बनते हैं। इसके लिए प्राणबल संवर की प्रक्रिया में मन को भी प्रशिक्षित एवं
१. वही, सितम्बर १९७७ से भावांश ग्रहण, पृ. ३१ २. (क) प्राणा वै द्विदेवत्याः एकमात्रा गृह्यते।
तस्मात् प्राणा एकनामाता द्विमात्रा हुनो, तस्मात्प्राण द्वन्द्वम्। -ऐतरेयोपनिषद् २/२७ (ख) अगर्भश्च सगर्भश्च प्राणायामो द्विधा स्मृतः। जप ध्यानं विना गर्भः, सगर्भस्तत्-समन्वयात्।
-शिवपुराण (ग) तत्साधनं द्वयं मुख्यं, सरस्वत्यास्तु चालनम् ।
प्राणरोधमयाभ्यासत्सा ऋज्वी कुण्डलिनी भवेत् ॥ -योग-कुण्डलिन्युपनिषद् १/८
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