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पुण्य : कब और कहाँ तक उपादेय एवं हेय? ६६९
रत्लत्रयस्वरूप शुभोपयोग से आकुलता का उत्पादक स्वर्ग-सुख प्राप्त होता है, निर्वाणसुख नहीं। इसी दृष्टि से कहा गया-'शुभोपयोगो हेयः' अर्थात्-मुनिराज के लिए शुभोपयोग कथञ्चित् हेय है।'' शुद्धोपयोग और शुभोपयोग की उपादेयता-हेयता पर विचार
शुभोपयोग पुण्य है, अशुभोपयोग पाप है और शुद्धोपयोग संवरनिर्जरारूप या आत्मस्वभाव-रमणरूप धर्म है। मुनि-अवस्था में शद्धोपयोग और शभोपयोग दोनों होते हैं। इस अपेक्षा से उपादेय और हेय का प्रतिपादन किया गया है। गृहस्थ श्रावक की भूमिका में शुद्धोपयोग की पात्रता ही नहीं है। अतः उसकी अपेक्षा से एकमात्र शुभोपयोग का आश्रय लेना उचित होगा। इस दृष्टि से, शुभोपयोग कथंचित् हेय है, तो कथंचित् उपादेय भी है। निर्विकल्पसमाधि निमग्न वीतराग चारित्री की अपेक्षा शुभोपयोग हेय है, किन्तु उस प्रकार की उच्च शुक्लध्यान-प्राप्ति में असमर्थ मुनिराज के लिए भी शुभोपयोग कथंचित् उपादेय है। ... किन्तु गृहस्थ श्रावक के लिए तो शुभोपयोग को सर्वथा हेय नहीं कहा जा सकता। आर्त-रौद्रध्यान के जाल में जकड़े हुए गृहस्थ की भूमिका को ध्यान में रखते हुए उसके उद्धार के लिए शुभोपयोग आवश्यक होगा। यदि आरम्भ, परिग्रह, हिंसा आदि पापस्थानों के पूर्णत्याग में असमर्थ गृहस्थ के लिए यह विधान किया जाए कि तुम्हारे लिये एकमात्र शुद्धोपयोग ही उपादेय है, शुभोपयोग सर्वथा हेय है; ऐसी स्थिति में वह किंकर्तव्यविमूढ़ होकर अशुभोपयोग का ही पल्ला पकड़ेगा, फलतः उसकी दुर्गति होगी; क्योंकि आचार्य अमृतचन्द्रसूरि ने कहा-'अत्यन्तहेय एवाऽयमशुभोपयोगः', अर्थात्यह अशुभोपयोग अत्यन्त हेय है। इसलिए सापेक्ष (अनेकान्त) दृष्टि से हेयोपादेय के विषय में यही विवेक करना उचित होगा-शुद्धोपयोग उपादेय है, उसकी अपेक्षा शुभोपयोग हेय है; किन्तु अत्यन्त हेय अशुभोपयोग की अपेक्षा शुभोपयोग उपादेय है। बुद्धिमान व्यक्ति अत्यन्त हेय अशुभ का त्याग करके शुभ का आश्रय लेता है, क्योंकि ऐसा करना ही अपेक्षाकृत अल्प-दोषरूप है। ___ कुन्दकुन्दाचार्य ने 'बारसअणुवेक्खा' में इसी तथ्य को अनावृत किया है'- शुभ योगों में प्रवृत्ति होने पर अशुभयोग का संवर होता है; तथैव शुद्धोपयोगरूप परमसमाधि 9. (क) धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो। . पावदि णिव्वाणसुहं सुहोजुत्तो व सग्गसुहं॥
-प्रवचनसार मू.११ (ख) प्रवचनसार ता. वृ.(जयसेनाचार्य) का आशय महाबंधो भा.१ प्रस्तावना में देखें, पृ.५९ २. महाबंधो भा. १ प्रस्तावना (पं. सुमेरुचन्द्र जैन दिवाकर) से पृ. ५९, ६० ३. सुहजोगेसु पवित्ति संवरणं कुणदि असुहजोगस्स। ... सुहजोगस्स गिरोहो, सुद्धवजोगेण संभवदि।"
-बारस अणुवेक्खा ६३
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