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मनःसंवर के विविध रूप, स्वरूप और परमार्थ ८५५ के साथ तथा जो भी साधनाएँ वीतराग-सर्वज्ञ पुरुषों द्वारा निर्दिष्ट हैं, उनमें स्वयं लगाना आवश्यक है। मनोनिग्रह में मनुष्य जिन कठिनाइयों, भीतियों तथा अवरोधों का अनुभव करता है, वे उसके अपने ही मन द्वारा निर्मित होते हैं।' मनःसंवर कठिन अवश्य है, असम्भव नहीं
- हमें मन में यह दृढ़ धारणा बना लेनी चाहिए कि मनःसंवर या मनोनिरोध मनुष्य के लिए कठिन अवश्य है, परन्तु असम्भव नहीं। असम्भव होता तो महामुनि बनने के बाद ध्यानसाधना में तथा एकान्त शान्त वातावरण में मनःसंवर की साधना में संलग्न होने के बावजूद भी महासती राजीमती के रूप-लावण्य को देखकर तीर्थंकर अरिष्टनेमि के लघुभ्राता रथनेमि का विचलित एवं मनःसंवर से स्खलित हुआ मन पुनः कैसे स्थिर हो पाता? . ___ दशवैकालिक सूत्र में शास्त्रकार स्वयं कहते हैं-जिस प्रकार अंकुश से मदोन्मत्त हाथी का मद उतर जाता है, उसी प्रकार राजीमती महासती के सुभाषित (वैराग्यवासित अथवा संसारभयोद्विग्नकारक) वचन रूपी अंकुश से रथनेमिरूपी हाथी के मन में संवर धर्म से विचलित करने वाला विषयवासनारूप काममद उतर गया और वे पुनः जिनोक्त संयम (संवर) धर्म में सुस्थित या सम्यक् रूप से प्रवृत्त हो गए। मनःसंवर से विचलित व्यक्ति भी पुनः उसमें सुस्थिर हो सकता है
आशय यह है कि मोहकर्म के उदयवश यदि किसी आत्मार्थी मनःसंवर साधक का मन कामभोगो की अभिलाषा से उत्पन्न पापानव से घिर जाता है, किन्तु वह पापभीरु व्यक्ति किसी का सदुपदेश मिलने पर पुनःसंवरधर्म में अपने मन को सुस्थिर कर लेता है। रथनेमि का चित्तरूपी वृक्ष विषयभोग दावानलजन्य संताप से संतप्त हो गया था, किन्तु वैराग्यरस की वर्षा करने वाले महासती राजीमती के वचन-मेघ से सींचे जाने पर शीघ्र ही संयम (संवर) रूपी अमृत के रसास्वादन से संवर में स्थिर हो गया। मनःसंवर साधक के लिए स्वाध्याय, सदुपदेश अतीव सहायक
. अतः सर्वोत्तम मनःसंवर साधक तो वह है, जिसका मन चाहे जैसी विकट एवं मोहक परिस्थिति में भी संवर से विचलित न हो, किन्तु वह भी मनःसंवर साधक पुरुषोत्तम कहलाता है, जो कदाचित प्रमादवश मनःसंवर से स्खलित हो जाने पर भी सोच-समझकर संवर धर्म के नियमों-व्रतों में पुनः अपने मन को सुस्थिर कर लेता है। ... इसीलिए दशवकालिक सूत्र में कहा गया है कि जो मनःसंवर साधक सम्बुद्ध (सम्यग्दर्शन सम्पन्न) हैं, पण्डित (सम्यग्ज्ञान सम्पन्न) हैं तथा प्रविचक्षण (सम्यक्चारित्र
१.. मन और उसका निग्रह (स्वामी बुधानन्द) से भावांश ग्रहण पृ. ३७.
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