________________
९३२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) , सम्बन्धी असंयम, (६) अत्यधिक मानसिक तनाव, चिन्ता, शोक आदि, और (७) शरीर • में मल-मूत्रों का अवरोध करना, शुचिता की उपेक्षा करना।
इसके अतिरिक्त क्रोध, असन्तुलन, विक्षोभ, भय, शोक, हताशा, ईर्ष्या, कुढ़न जैसी मनःस्थिति का प्रभाव भी रक्त को विषाक्त बना कर शरीर की प्राणऊर्जा को क्षीण कर देता है। .
काया को सर्वाधिक क्षत-विक्षत कर देने वाली कुल्हाड़ी आहार-विहार एवं विचारों का असंयम तथा अनियमितता है। अन्यथा, शरीर स्वयं ही अपने भीतर होने वाली टूट-फूट की मरम्मत और छीजन की पूर्ति कर लेता है। इसमें स्वतः ही बाहरी आघातों, चोटों या सर्दी-गर्मी के थपेड़ों को सहन करने की सामर्थ्य है। . .
हनुमान चरित्र में कहा गया है कि हनुमान जी को लेकर उनकी माता विमान से आ रही थी, तब बीच में ही एक जगह उछलकर बालक हनुमान ऊपर से एक पर्वत पर गिर पड़े। इतनी ऊँचाई से गिरने पर भी हनुमान जी का बाल भी बांका न हुआ, बल्कि वह चट्टान टूट गई। यह शरीर में पूर्वजन्मकृत शुभकर्मोदयवश प्राणशक्ति के पर्याप्त विकास का सूचक है। यह अनहोनी बात नहीं है।
इटली की गेजेटा ग्रास परौनी नामक लड़की का शरीर रबड़ की गेंद की तरह हलका था। उसे बीस फुट ऊँचे से गिराया गया, तो चोट लगने कीबात ही क्या, फुटबॉल की तरह कई बार उछली और हंसती-खेलती रही।"
कहावत है-'बलवति शरीरे बलवान् आत्मा त्रिवसति'-प्राणऊर्जा युक्त बलिष्ठ शरीर में बलवान् आत्मा का निवास होता है। परन्तु बलवान् शरीर में बलवान् आत्मा का निवास भी तभी स्थायी एवं सुखशान्तिप्रदायक होगा, जब योगाभ्यास, प्राणायाम, तपस्या, तितिक्षा, अहिंसा-संयम आदि की साधना में उस बलिष्ठ शरीर का उपयोग किया जाए। तभी स्थूल शरीर को प्राणवान् बनाने वाला तैजस शरीर समृद्ध होगा, प्रखर कायिक विद्युत प्रवाह उत्पन्न होगा, विज्ञान की भाषा में प्राण तैजस और योग की भाषा में ब्रह्मवर्चस् सम्पन्न होगा। और तभी बड़े से बड़े उपसर्गों, परीषहों, कष्टों, एवं संकटों का सामना प्रसन्नतापूर्वक, समभावपूर्वक करके साधक कायबल प्राण-संवर की साधना को प्रखर बना सकेगा।
कायोत्सर्ग द्वारा भी कायबल प्राप्त संवर की साधना की जा सकती है। १. (क) “णवहि ठाणेहि रोगुप्पत्ती सिया, जहा-अच्चासणयाए, अहितासणयाए, अतिणिहाए,
अतिजागरितेणं, उच्चारणिरोहेणं, पासवनिरोहेणं, अद्धाणगमणेणं, भोयणपडिकूलताए, इंदियत्य विकोवणयाए।" .
-स्थानांगसूत्र स्थान ९, सू. १३ (ख) अखण्डज्योति, मई १९७८, पृ. ४४ (ग) अखण्डज्योति, दिसम्बर १९७६ से भावांश ग्रहण, पृ.७
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org