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प्राणबल और श्वासोच्छ्वास- बलप्राण-संवर की साधना
प्राण: प्राणियों को जीवनदाता, त्राता और क्रियाशीलता का जनक
जिस प्रकार बाह्य ताप, विद्युत, ईथर, प्रकाश-विकरण आदि बाह्य स्थूल पदार्थ प्राकृतिक जगत् में व्याप्त हैं, उसी प्रकार 'प्राण' भी समस्त प्राणियों के जीवन में व्याप्त है। उसकी पहचान शरीरधारियों की क्रियाशीलता, विचारणा, भावना, बौद्धिक उन्नति इत्यादि के रूप में कार्यान्वित होने से स्पष्टतया हो जाती है।
प्राण की व्याख्या करते हुए चिन्तकों ने लिखा है-" प्राणयति जीवयतीति प्राणः।" अर्थात्-"जो प्राणिमात्र के जीवन का आधार बनकर रहता है, वह प्राण है। ""
वस्तुतः प्राण जीवनी शक्ति का ही दूसरा नाम है। इसी जीवनी शक्ति (प्राणऊर्जा) के बल पर संसार के सारे क्रिया कलाप चलते हैं। इसी जीवनी शक्ति के आधार पर व्यक्तित्व के विकास की सम्भावनाएँ प्रस्फुटित होती हैं। इसलिए प्राण की मनुष्य जीवन में सर्वाधिक उपयोगिता है।
वही स्थूल शरीर में बलिष्ठता और सुन्दरता के रूप में दृष्टिगोचर होता है। मनोजगत् में उसे साहसिकता, उत्साहशीलता, बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता, वत्सलता और आत्मौपम्य भाव के रूप में देखा जा सकता है। अन्तरात्मा में उसी का प्रकाश श्रद्धा, सद्भावना, रुचिता और उत्कृष्टता के रूप में विकसित होता है। मस्तिष्क में उसकी ज्योति सम्यक्ज्ञान की प्रभा और प्रतिभा बन कर चमकती है। हृदय में वह दृढ़ता और पराक्रमशीलता उत्पन्न करती है। वाणी और नेत्र में प्रभावशालिता एवं तेजस्विता, तथा ओजस्विता के रूप में उसे देखा जा सकता है। होठों पर मुस्कान और ललाट पर आशा की रश्मियों के रूप में प्रकट होते हुए उसे देखा जा सकता है। वह शरीर के जिस किसी भी अवयव में, जितनी अधिक मात्रा में विद्यमान रहता है, वह उतना ही अधिक सक्षम और विकसित देखा जा सकता है।
१. प्राणशब्द " अन् प्राणने' धातु से व्युत्पन्न हुआ है, जिस का अर्थ होता है जो जिलाता है, प्राणशक्ति - जीवन शक्ति देता है, वह प्राण है। - देखें - अखण्ड ज्योति मार्च १९७७, पृ. ३५
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