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प्राणबल और श्वासोच्छ्वास-बलप्राण-संवर की साधना ९३९ प्राणशक्ति के जागरण और रहस्यज्ञान से लाभ
इसीलिए प्रश्नोपनिषद् में प्राणबल-संवर के सन्दर्भ में प्राणविद्या-ज्ञाता के लिए कहा गया है-"जिस विद्वान् ने प्राण के रहस्य को जान लिया, उसकी प्रज्ञा परम्परा कभी नष्ट नहीं होती, वह उसी के द्वारा अमर हो जाता है।"
बृहदारण्यक के अनुसार-"प्राण-संवर के साधक को प्राणवान् बनने के साथ ही प्राण उसका यश और बल (प्रदाता) बन जाता है।"
इसीलिए तांड्योपनिषद् में कहा गया है-"(जीवन के सभी क्षेत्रों में) प्राण को जाग्रत करना ही महान् जागरण है।"
छान्दोग्य उपनिषद् में तो स्पष्ट कहा गया है-(प्राणसंवर साधक के लिए) इस प्राण शक्ति की सम्भावना आशा से अधिक है।" . वस्तुतः प्राणशक्ति के जागरण से अमृतत्व और मोक्ष दोनों प्राप्त हो सकते हैं, बशर्ते कि वह साधक अपनी शक्तियों को प्राण-संवर की उपासना में तन्मय होकर लगाए। इसीलिए वेद में एक जगह कहा गया है-“हे विचारशील मानवो ! प्राण की उपासना करो।" इसी से भौतिक और आध्यात्मिक विभूतियाँ प्राप्त होती हैं, इहलोक
और परलोक दोनों सुधरते हैं।' प्राणशक्ति ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप की साधना में सहयोगी
यह प्राणशक्ति ही मानव को परमात्मा-शुद्ध आत्मा के अनन्तज्ञान-दर्शनसुख-शक्तिरूप मूलगुणों की परिपूर्णता में सक्षम बनाती है। वैदिक परम्परानुसार प्राणशक्ति जीवात्मा को सत-सत्ता को, चित अर्थात-समत्व के ज्ञान-दर्शन से परिपूर्ण बनाती है। इस दोनों का समन्वय होने पर वह स्थिति पैदा होती है, जिसके कारण पदार्थों के विवेकपूर्वक उपयोग और प्राणियों के सहयोग का आनन्द प्राप्त किया जा सकता है।
मनुष्य के चारों ओर आनन्ददायक स्वाधीनतापेक्ष सामग्री भरी पड़ी है, परिस्थितियाँ भी प्रायः अनुकूल हैं। फिर भी अशक्तिजन्य (प्राणाल्पताजन्य) दरिद्रता से सामान्य प्राणी घिरा रहता है। इस विपन्नता का कारण प्राणशक्ति की कमी के सिवाय और कोई नहीं है।
१. (क) य एष विद्वान् प्राणं वेद रहस्यं प्रज्ञा हि यत्तेऽमृतो भवति तमैव श्लोकः ।
.-प्रश्नोपनिषद् (ख) 'प्राणो वै यशो बलम्।
-बृदारण्यक (ग) “यद्वा व प्राणा जागर तदेव जागरितम्।'
-ताण्डय. (घ) “प्राणो वा व आशाया भूयान् यथा।"
-छान्दोग्योपनिषद् (छ) अखण्ड ज्योति मई १९७७ से भावांश ग्रहण पृ.१९
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