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९४२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्नव और संवर (६)
जटिल है, यह समझा जा सकता है। संग्रह और उपभोग के लिए सर्वत्र बिखरी हुई आतुरता और आकुलता के बीच जो त्याग, तप, तितिक्षा परीषहजय और बलिदान की बात सोचते ही नहीं, कर दिखाने के लिए भी कटिबद्ध हो जाते हैं, वे ही सच्चे प्राणवान् और प्राणबल संवर के साधक कहे जा सकते हैं। प्रसिद्धि और प्रशंसा के रूप में सत्कार उपहार मिलें या न मिलें, उन्हें इनकी अपेक्षा नहीं रहती।' प्राणबल संवर के साधकों के लिए इतना पराक्रम अनिवार्य
भौतिकता की उपलब्धि के लिए जिस प्रकार पनडुब्बे समुद्र में गहरी डुबकी लगाकर मोती ढूँढ़ लाते हैं; बहुमूल्य खनिज प्राप्त करने के लिए धरती को गहराई से खोदते जाने में खनिक श्रमजीवियों को अद्भुत साहस जुटाना पड़ता है; उससे भी बढ़कर साहस और आत्मबल, धैर्य और सतत अविचल पुरुषार्थ अपनी प्रसुप्त आत्मशक्तियों को जागृत करने और अन्तश्चेतना की गहरी परतों में उतरने के लिए प्राणबल संवर के साधकों को करना पड़ता है। सोते सिंह और सोते सर्प को जगाने में जितना पराक्रम चाहिए उससे भी बढ़कर पराक्रम कामभोगों की ओर दौड़ने में अभ्यस्त इन्द्रियों को आनवनिरोध रूप संवर के अध्यात्मपथ की ओर मोड़ने में करना होता है।
इसीलिए तो आचार्य सम्भूतिविजय ने सर्प की बीबी पर तथा सिंह की गुफा में चातुर्मासकाल बिताने वाले अपने दो शिष्यों की अपेक्षा पंचेन्द्रिय विषयों की प्रतिमूर्ति कोशावेश्या की चित्रशाला में अपने ब्रह्मचर्य पथ में अडिग रहते हुए चातुर्मास बिताने वाले अपने शिष्य स्थूलभद्रमुनि की साधना को दुष्करातिदुष्कर कहा था ।
वन्य पशुओं को धैर्यवान् लोग प्रशिक्षित करते हैं; मरुस्थल को उर्वराभूमि बना देना भी दूरदर्शी, अथक लगन और परिश्रम वाले, साधन सम्पन्न लोगों का काम है; अनघड़ व्यक्तित्व को सुघड़ और सुसंस्कृत बनाने हेतु कलाकारों जैसा कौशल विकसित करना पड़ता है, शत्रु को मित्र बना लेना भी प्रशंसनीय कार्य है; किन्तु इन सब लौकिक और भौतिक उपलब्धि वाले कार्यों की अपेक्षा भी प्राणबल-संवर के साधक की प्राणबल के सहारे आस्रवों पर प्रतिक्षण प्रहरी बन कर उन्हें रोकने और प्राण- संवर करने की कठोरतम साधना है। उसे आम्नवों के गहरे अनर्थ में संलग्न विकृत कुसंस्कारों और कुटेवों को आमूलचूल बदलना पड़ता है। ऐसे मार्ग पर चलने के लिए अजस्र प्राणशक्ति चाहिए।
१. (क) अखण्ड ज्योति मई १९७७ से भावांश ग्रहण पृ. ४२
(ख) "अणुसोअ - सुहो लोओ, पडिसोअ आसवः सुविहिआणं ।
अणुसोओ संसारो, पडिसोओ तस्स उत्तारो ॥" - दशवैकालिक, चूलिका २, गाथा ३ (ग) “जो सहस्सं सहस्साणं संगामे दुज्जए जिए। एगं जिणेज्ज अप्पाणं एस से परमो जुओ ॥
-उत्तराध्ययन अ. ९ गाथा ३४
अखण्ड ज्योति मार्च १९७७ से भावांश ग्रहण, पृ. ४२
२.
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