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प्राणबल और श्वासोच्छ्वास- बलप्राण- संवर की साधना ९४३
प्राणवान् व्यक्ति का दूसरों पर प्रभाव और प्राण - जागरण
उपनिषदों में यह भी बताया गया है कि मन और इन्द्रियों (की शक्ति का क्षरण न करके उन) के साथ प्राणशक्ति को मिला देने से वे अत्यन्त प्रभावशाली हो उठती हैं और अपनी सामर्थ्य से किसी को भी प्रभावित कर सकती हैं। ऐसे प्राणशक्ति सम्पन्न व्यक्ति के उपदेश और सन्देश को अगणित मानव सुनने के पिपासु रहते हैं। पर्वत, नदी आदि प्राकृतिक वस्तुएँ भी उसके आदेश निर्देश का उल्लंघन नहीं करती।
उसमें इतनी क्षमता आ जाती है कि वह किसी भी व्यक्ति के प्राण में अपने प्राणों को घुलाकर उसके प्राणों को जागृत कर सकता है। जो ऐसे प्राणवान् व्यक्तियों से द्वेष करता है, वह स्वयं नष्ट हो जाता है । प्राणशक्ति सम्पन्न सामर्थ्यवान् गुरु अपने शिष्यों को इसी प्राणसम्पदा से सुसम्पन्न बनाकर उन्हें उत्तराधिकार का श्रेय प्रदान कर देते हैं । इसी प्रकार का अनुदान पाने के लिए श्रद्धालु शिष्य ऋषि आश्रमों और गुरुकुलों में निवास और तपःसाधना करते हुए अपनी योग्यता का विकास करते थे ।
भगवान् महावीर ने इन्द्रभूति गौतमादि को, गौतमबुद्ध ने भिक्षु आनन्द को, महर्षि धौम्य ने आरुणि को, गौतम ऋषि ने जाबालि को, इन्द्र ने अर्जुन को, यम ने नचिकेता को, शुक्राचार्य ने कप्प को, इसी प्रकार की उच्चस्थिति में पहुँचाया था। रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानन्द में, तथा विवेकानन्द ने सिस्टर निवेदिता में एवं स्वामी विरजानन्द ने ऋषि दयानन्द में इसी प्रकार प्राण प्रत्यावर्तित किये, प्राणशक्तिपात किया था । किन्तु उनकी प्राणशक्ति में प्रखरता तभी आई, जब उन्होंने स्वयं प्राणबल संवर की साधना की। ' प्राणशक्ति की प्रखरता से व्यक्ति ओजस्वी, तेजस्वी, मनस्वी एवं तपस्वी बनता है।
इसी प्राणशक्ति की प्रखरता ही शरीर में संव्याप्त होकर उसे ओजस्वी बनाती है। जब यह मनःसंस्थान में उभरती है तो व्यक्ति मनस्वी दीखता है और अन्तःकरण में समुचित रूप से समाविष्ट होने पर व्यक्ति तेजस्वी बनकर अपने आत्मतेज से निकटवर्ती वातावरण को प्रभावित एवं प्रकाशित करता है। यही प्राणऊर्जा चेतना में सम्मिश्रित होकर ब्रह्मवर्चस् बन जाती है। सम्पदाओं और विभूतियों की दृष्टि से उसका मूल्यांकन किया जाए तो उसे ऋद्धि-सिद्धि कह सकते हैं। आचार्य (धर्माचार्य) में जो आठ सम्पदाएँ बताई गई हैं, वे इसी प्राणशक्ति के विकास के परिणाम हैं।
जैनागमों में देवों की, चक्रवर्तियों की, तथा बलदेव वासुदेव आदि की एवं अरहन्त, केवलज्ञानी, आचार्य, उपाध्याय, साधु एवं अवधिज्ञान आदि अतीन्द्रिय ज्ञान
१. (क) वही, मार्च १९७७ से, पृ. ४३ (ख) तुलना करें
सुसंवुडा पंचहिं संवरेहिं, इह जीवियं अणवकंखमाणा ।
...वोस काया सुचइत्तदेहा, महाजयं जयइ जन्नसिङ्घ ॥ -उत्तराध्ययन अ. १२, गा. ४२
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