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९३८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६)
यह चमक ही बौद्धिक क्षेत्र में ओजस्विता और क्रिया क्षेत्र में तेजस्विता कहलाती है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में यही मनस्विता तथा प्रतिभा बनकर देदीप्यमान होती है।
आध्यात्मिक दृष्टि से प्राणशक्ति सर्वतोमुखी समर्थता कही जा सकती है। इसीलिए प्राण को ओज, तेज, वीर्य, शक्ति, बल, ऊर्जा एवं सामर्थ्य आदि कहा गया है। प्रसुप्त प्राणबल को जाग्रत किया जाए : असीम क्षमता की प्राप्ति सम्भव..
सामान्यतया यह प्राणबल प्रसुप्त अवस्था में पड़ा रहता है। स्थूलदृष्टि वाले, मिथ्याज्ञान-ग्रस्त या भौतिकता-परायण लोग उससे शरीर-निर्वाह-भर के काम ले पाते हैं। अगर इसे संवर-साधना के आधार पर जाग्रत किया जाए तो सामान्य व्यक्ति में भी असामान्य व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति हो सकती है। प्राण की शक्ति-क्षमता तो असीम है, मगर उसकी असीमता को प्राप्त करने के लिए प्राणबल-संवर की साधना की जाए तो प्रचुर प्राणशक्ति प्राप्त कर सकना सम्भव है। - इसी कारण अधिकांश उपनिषद्कारों ने प्राण को आत्मा की क्रियाशक्ति, और मोक्षप्राप्ति के पूर्व तक उसे आत्मा से सम्बद्ध माना है। विविध (मुख्यतः अष्टादशविध) पापों, कषायों, कल्मषों, आम्नवों एवं संस्कारों का उन्मूलन या निराकरण इसी प्राण देव की प्रचण्ड संकल्प शक्ति के सहारे ही होता है। ढिलमिल स्वभाव वाले आत्म-परिष्कार की बात सोचते एवं सुनते हैं, पर वैसा कुछ कर नहीं पाते। वे केवल मनसूबे बांधते एवं कल्पना जाल बुनते रहते हैं। प्रचण्ड संकल्पबल के बल पर प्राणबल संवर साधना में उत्पन्न आत्मिक साहस ही दुर्भावनाओं, दुष्प्रवृत्तियों, दुश्चेष्टाओं, दुर्ध्यानों, दुश्चिन्तनों, अवांछनीय आचरणों, संवरसाधन की मर्यादा तोड़ने वाले अनुष्ठानों या कार्यों से जूझा जा सकता है।
सूत्रविरुद्ध, मार्गविरुद्ध, कल्पविरुद्ध, अकरणीय प्रवृत्ति को रोकने का कार्य भी प्राणबलसंवर का साधक इसी प्राणशक्ति के सहारे करता है। उत्कृष्टता की दिशा में गति-प्रगति करने के लिए प्रेरणा और अवरोधों से जूझने की क्षमता भी इसी प्राणबल से मिलती है जिसे आत्मबल कहा जाता है।
प्राणदेव के अनुग्रह से मनोनिग्रह, इन्द्रिय विजय और विकारों के उन्मूलन की चर्चा बृहदारण्यक उपनिषद् में बार-बार की गई है।
१. अखण्ड ज्योति मई १९७७ से भावांश ग्रहण, पृ. १७,१६ २. तुलना करें-"कायोत्सर्ग करने से पूर्व इच्छामि ठामि के श्रमणावश्यक के पाठ से- उस्सुत्तो . उमग्गो, अकप्पो, अकरणिज्जो, दुज्झाओ, दुविचिंतिओ, अणायारो अणिच्छियव्वो"। .
-आवश्यकसूत्र प्रथम आवश्यक
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