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प्राण- संवर का स्वरूप और उसकी साधना ९३३
इसके पश्चात् श्वसोच्छ्वास - बल - प्राणसंवर का क्रम है। श्वासोच्छ्वास का सन्तुलन रखने से उसमें निहित प्राणशक्ति का अभिवर्धन और संवर हो सकेगा। इसके सम्बन्ध में विस्तृत प्रकाश अगले निबन्ध में डाला गया है।
सबसे अन्त में, आयुष्य-बल-प्राणसंवर है। यद्यपि आयुष्य का बन्ध तो जीवन में एक ही बार होता है, किन्तु उसमें प्राणशक्ति का विकास और ह्रास तो स्वयं व्यक्ति पर निर्भर है। अनेक दीर्घजीवी लोगों के दीर्घायुष्य का कारण आहार-विहार, व्यवहार दिनचर्या आदि नियमित और संतुलित, सादा जीवन रहा है। अगर तपस्या, संयम, नियम और आहार-विहार के सन्तुलन का ध्यान रखा जाए तो उससे दीर्घायुष्कता तो होगी ही, साथ ही आयुष्य बल प्राण का विकास उसके जीवन से होने वाले हिंसादि पापकर्मों के आनवों का निरोध यानी आयुष्यबल प्राणसंवर करने में भी उपयोगी होगा। इस प्रकार प्राण संवर का शरीर के विविध संस्थानों में अभ्यास करने से सफलता मिलना सुनिश्चित है।
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