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८६२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्रव और संवर (६)... आवश्यकतानुसार स्व-मर्यादा में विषयों का ग्रहण-चिन्तन करते हैं, परन्तु उन विषयों में सुख की कल्पना, तथा प्राप्ति की स्पृहा नहीं करते। : इसी तथ्य का आचारगि में उद्घाटन किया है-'वीर मनःसंवर साधक संवर साधना में सेवा, तपस्या, स्वाध्याय, संयम तथा व्रत साधना आदि के प्रति होने वाली अरति (अरुचि, अनिच्छा) को सहन नहीं करता और न ही शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि मोहक विषयों के प्रति मन की रति (रुचि, प्रसन्नता या आकर्षण) को सहन करता है। वह इन दोनों में ही अविमनस्क (स्थिर-शान्तमना) रहकर इनमें आसक्त (आरक्त) नहीं होता, रति और अरति ये दोनों साधक के अन्तःकरण में छिपी हुई दुर्बलता हैं। अन्तर्मन में राग-द्वेष वृत्ति के गाढ़ तथा सूक्ष्म जमे हुए संस्कार ही उसे मोहक विषयों के प्रति आकृष्ट करते हैं तथा प्रतिकूल विषयों के सम्पर्क चंचल बना देते हैं।' मनोनिग्रह में बाधक बातें ___उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मनःसंवर की साधना के लिए कुछ क्रियाओं, अभिरुचियों, रुचियों और विचारों की शुद्धि भी आवश्यक है। गलत रुचि और अरुचि, गलत कार्यों तथा अशुभ विचारों के कारण मनोनिग्रह की साधना असफल हो जाती है। - मनोनिग्रह के लिए निम्नोक्त बातें बाधक हैं-
(१) मनोज्ञ-अमनोज्ञ विषयों या वस्तुओं के प्रति तीव्र रुचि-अरुचि, अथवा राग-द्वेष मनःसंवर में बाधक है। (२) अनैतिक, अशिष्ट, असभ्य एवं मर्यादाहीन जीवन बिताना भी मनःसंयम में बाधक है। (३) मादक वस्तुओं का, मांसाहार का सेवन करना, तथा जूआ आदि अन्य कुव्यसनों का सेवन भी मनोनिग्रह में बाधक है। (४) हमारी खाने-पीने, सोने-उठने, चलने फिरने, बैठने उठने आदि की चर्या तथा मनःसंवर की साधनानुरूप क्रिया अनियमित; असंयत, अयतनायुक्त तथा अव्यवस्थित होगी तो मनःसंवर नहीं कर सकेंगे। (५) दूसरों की हिंसा करने, चोरी-ठगी करने, परिग्रह वृद्धि करने या अमर्यादित संग्रह करने, असत्याचरण करने की मनोवृत्ति या इरादा रखने से, या दूसरों को जान-बूझकर हानि पहुँचाने या कष्ट देने अथवा परेशानी में डालने का मन ही मन षड्यंत्र रचने या इरादा बनाने से, अथवा रातदिन, चिन्ता, शोक, विलाप, रुदन आदि में मन को डुबाये रखने पर यानी रौद्रध्यान-आर्तध्यान होने पर मनःसंवर की साधना नहीं हो सकेगी। (६) व्यर्थ के वाद-विवाद में पड़ने से, दूसरों के छिद्र या दोष देखने-खोजने में तत्पर होने से, किसी की निन्दा-चुगली करने या दूसरों के सम्बन्ध में जानने के लिए अनावश्यक रूप से उत्सुक होने से मनःसंक्षोभ बढ़ेगा और ऐसे निरर्थक
१. णारतिं सहते वीरे, वीरे णो सहते रति। जम्हा अविमणे वीरे, तम्हा वीरे ण रज्जति।
__-आचारांग १/२/६ सू. ९८ का विवेचन, पृ. ७५-७६
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