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९२० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
रसनेन्द्रिय-बलप्राण का संवर : कब और कब नहीं? - रसनेन्द्रिय बल प्राण-संवर कैसे हो सकता है ?इसे भी जानना आवश्यक है। जिह्वा के साथ प्राणऊर्जा का संयोग होने पर उसमें चखने, स्वाद को परखने और रसास्वादन करने की शक्ति आती है। परन्तु इस प्राणशक्ति से उपलब्ध रसास्वादन शक्ति का उपयोग बाह्य रसों का आस्वादन करने में लगाकर व्यक्ति अपनी प्राणऊर्जा को नष्ट कर डालते है, स्वास्थ्य भी बिगाड़ते हैं और अन्तःकरण भी।
. • इसकी अपेक्षा रसनेन्द्रिय के साथ संयुक्त प्राणशक्ति को बाह्य रसास्वादन का निरोध करके उसे अन्तरंग रसास्वादन में लगाया जाए, आन्तरिक आत्मगुणों के रसास्वादन का आनन्द प्राप्त किया जाए या 'रसो वै सः' इस उपनिषद् वाक्य के अनुसार परब्रह्म-परमात्मभक्तिरस का आस्वादन किया जाए तो रसनेन्द्रिय प्राणसंवर की साधना का उद्देश्य पूर्ण हो सकता है। अथवा जीभ पर खाद्य-पेय वस्तुओं का स्पर्श होने पर तथा, उनके स्वाद का सहज अनुभव होने पर भी मन से मनोज्ञता-अमनोज्ञता का चिन्तन तथा राग-द्वेष या आसक्ति-घृणा का विश्लेषणं न किया जाए। ... . शास्त्रों में यत्रतत्र यह बताया गया है कि जिस प्रकार सांप बिल में सीधा प्रविष्ट हो जाता है, उसी प्रकार जिह्वेन्द्रिय संयमी साधक भी आहार पर प्रीति-अप्रीति का चिन्तन उपक्रम किये बिना चबा कर सीधे ही गले से नीचे उतार दे। .. स्वादविजयं के सन्दर्भ में बृहत्कल्प भाष्य में कहा गया है-"जो अल्पाहारी होता है, उसकी इन्द्रियाँ विषय भोगों के आस्वादन की ओर नहीं दौड़तीं। तप का प्रसंग आने पर भी यह क्लान्त नहीं होता और न ही सरस भोजन में आसक्त होता है।" यद्यपि जिव्हेन्द्रिय प्राणसंवर की साधना अत्यन्त कठिन है, तथापि अभ्यास से साध्य है।' स्पर्शन्द्रिय-बलप्राण-संवर की साधना से लाभ
- इसके पश्चात् स्पर्शेन्द्रिय-बल-प्राण संवर की साधना का क्रम आता है। स्पर्शेन्द्रिय के साथ पूर्व-कृत-कर्म-क्षयोपशम-वशात् पर्याप्त प्राणऊर्जा का संयोग मिलने पर ‘स्पर्शेन्द्रिय की प्रयोग शक्ति प्राप्त होती है। परन्तु इसका उपयोग सहज स्वाभाविकरूप में होता रहे, तब तो कोई बात नहीं, परन्तु मनुष्य स्पर्शेन्द्रिय के शीत-उष्ण आदि आठस्पी को पाकर मनोज्ञता-अमनोज्ञता का चिन्तन करके राग-द्वेष में वृद्धि करता है। और कर्मों के आसव और बन्ध में भी वृद्धि करता रहता है।
१. अप्पाहारस्स न इंदियाई विसएसु संपत्तति। ..
नेव किलम्मइ तवसा, रसिएसु न सज्जए यावि। -बृहत्कल्पभाष्य-१३३१ २. अट्टफासा पण्णता, तंजहा-कक्खडे, मउए, गरुए, लहुए, सीते, उसिणे, गिद्धे, लुक्खे। ..
-स्थानांग स्थान ८.
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