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९२८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
छान्दोग्य उपनिषद में कहा गया है कि "जो वाणी को ब्रह्म समझकर उसकी उपासना (उपयोग प्रयोग) करता है, उसकी गति (वाक्क्षमता) अभीष्ट क्षेत्र तक हो जाती है।” अथर्ववेद में वाणी की प्रखर क्षमता का चमत्कार बताते हुए कहा गया है"आत्मबल रूपी धनुष, तपरूपी तीक्ष्ण बाण लेकर तप और मन्यु (साहस) के सहारे जब यह ब्रह्मवेत्ता तपस्वी मंत्रशक्ति (वाक्शक्ति) का प्रहार करते हैं तो अनात्म तत्त्वों को पूरी तरह वेध कर रख देते हैं।"
ऋग्वेद में वाक्शक्ति का चमत्कार बताते हुए कहा है कि- "मंत्रशक्ति (वाकूसंयुक्त प्राणऊर्जा) ने पत्थरों को भी चूर-चूर कर डाला । "
वाणी के पीछे साधक का प्राण ऊर्जा समन्वित व्यक्तित्व ही मंत्रों (शब्दशक्ति) में प्रभाव उत्पन्न करता है। धनुष का चमत्कार उस पर चढ़ा कर चलाये हुए बाण से ही उत्पन्न होता है, इसी प्रकार साधक के वचन रूपी धनुष का प्रभाव भी उसके साथ प्राण शक्ति सम्पन्न व्यक्तित्व के जुड़ने पर ही उत्पन्न होता है केवल वचनोच्चारण की या मंत्रोच्चारण की विशेषता नहीं, उसके पीछे मधुरता, सज्जनता, शालीनता और सद्भावना, आदि अन्तःकरण की विशेषताएँ जुड़ी हुई हो, तभी याणी की क्षमता का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
वचन बल की क्षमता मौन, वागुगुप्ति, सप्रयोजन, संतुलन, सत्य और सद्भाव के जुड़े रहने से उभरती हुई देखी जाती है। इसलिए वचन-बल-प्राण-संबर के साधक को पहले वाक्शक्ति को विकसित करने हेतु मन, वचन, कर्म में ऐसी उत्कृष्टता समिति और युप्ति से उत्पन्न करनी पड़ती है कि जिह्वा को दग्ध करने वाला कोई कारण शेष न रह जाए। यदि वाणी दग्ध, कलुषित, दूषित, सावध (स्पाप) कर्कश, कठोर (कटु), निश्चयकारी, हिंसाकारी, छेदन-भेदनकारी स्थिति में हो तो उसके द्वारा उच्चारित वाणी में प्राण ऊर्जा विकसित न हो सकेगी, बल्कि वाणी में प्राणऊर्जाक्षीण होती जाएगी, उससे वाकक्षमता समाप्त हो जाएगी, भले ही वह उक्त (दग्ध) वाणी से कितने ही मंत्रपाठ, स्तोत्र-स्तवन- पाठ, जप, मौन आदि कर लें।
इसके विपरीत निरवद्य (निष्पाप), अकलुषित एवं पूर्वोक्त दूषणों से रहित भाषा समिति एवं वाग्गुप्ति से युक्त वाणी अद्भुत 'क्षमतायुक्त' हो जाती है, उसके द्वारा उच्चारित एक ही वाक्य से व्यक्ति का हृदय परिवर्तन, एवं जीवन परिवर्तन हो जाता है।
वाणी के परिष्कृत प्रभाव का लौकिक जीवन की प्रगति एवं प्रसन्नता के रूप में ही नहीं, लोकोत्तर जीवन में भी देखा जाता है।
लौकिक क्षेत्र में दूसरों को ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने, दुर्व्यसन छुड़ा कर नैतिक धार्मिक जीवन-यापन की प्रेरणा देने के प्रयोजन मधुर, संयत, परिष्कृत, हित-मित,
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