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९२२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
यह सब स्पर्शेन्द्रिय की प्राणशक्ति के संवर्धन का प्रभाव था, जो स्पर्शेन्द्रिय की प्राणशक्ति का अपव्यय न करने, और अत्यावश्यकता होने पर यतनापूर्वक उपयोग करने से सम्भव हो सकता है।
त्वचा की संवेदनशीलता भी प्रखर बनती है, स्पर्शेन्द्रिय की प्राणशक्ति के निरोध से
त्वचा की संवेदनशीलता भी प्रखर बनती है, स्पर्शेन्द्रिय की प्राणशक्ति का यथावश्यक निरोध करने से। संवेदनशीलता का विकास होने पर परिवेश के सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्पन्दनों का ग्रहण एवं विश्लेषण करने की क्षमता बढ़ जाती हैं। "
कहते हैं- "ऋषि दयानन्द की ब्रह्मचर्यनिष्ठा के प्रभाव से स्पर्शेन्द्रिय (त्वगिन्द्रिय) की संवेदनशीलता इतनी बढ़ गई थी कि पानी को छूते ही उन्हें पता लगा जाता था कि यह पानी बासी है या ताजा ?
इसी तरह नैष्ठिक ब्रह्मचारी साधु या सद्गृहस्थ श्रावक के शरीर से स्पृष्ट वस्त्र किसी को पहना या ओढ़ा देने से उसका समस्त रोग मिट जाता है। गुजरात के श्रावक पेथड़शाह ने जब से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया, तब से उनके पहने या छुए हुए वस्त्र को लेजाकर पहनाने अथवा उसके शरीर से उक्त वस्त्र छुआने से बहुत-से रुग्ण व्यक्ति रोगमुक्त हो जाते थे।
. किसी-किसी की स्पर्शेन्द्रिय प्राणऊर्जा पूर्वजन्म कृतकर्म के क्षयोपशम से स्वतः इतनी बढ़ जाती है कि वह दूसरे की किसी भी वस्तु - वस्त्र, अंगूठी या कोई अंग स्पृष्ट वस्तु - छूकर उसके भूत और भविष्य की घटना को यथार्थरूप से बता देते थे।
परन्तु यह सब स्पर्शेन्द्रिय बलप्राण संवर की साधना में तभी सहायक बन सकता है, जब अर्जित प्राणशक्ति का इस जन्म में या पूर्वजन्म में दुरुपयोग, दुर्व्यय या अवांछनीय कुकृत्यों में उसका अपव्यय न हुआ हो; और अत्यन्त आवश्यक हो, तभी उसका उपयोग यतनापूर्वक किया हो। तभी उसकी स्पर्शेन्द्रिय की प्राणशक्ति का विकास हो सकता है। और संवर में प्रयोग हो सकता है।
मनोबल प्राण के संवर की साधना
शरीर से परिपुष्ट होने भर से कोई व्यक्ति बलिष्ठ नहीं हो जाता। शक्तिमान वे हैं, जिनमें मनोबल पर्याप्तमात्रा में विद्यमान है। दुर्बल काया लेकर कर्मक्षेत्र में उतरने वाले महान् मानवों की संख्या इतिहास में अगणित हैं, जिन्होंने अपने मनोबल के सहारे स्वयं को ऊँचा उठाया और अगणित लोगों के भविष्य का निर्माण किया।
. आद्यशंकराचार्य सरीखे भयंकर भगंदर व्रण से रुग्णव्यक्ति अपने छोटे-से जीवन काल में आश्चर्यजनक सफलताएँ प्राप्त कर चुके । महात्मागांधी दुर्बलकाय' होते हुए भी
अखण्ड ज्योति, जून १९७४ से, पृ. २५
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