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९२६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
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नहीं होता, तब तक मन शान्त नहीं हो सकता। मन को शान्त करने के लिए प्राण की तीव्र गति को मन्द करना अनिवार्य है।
हठयोग.प्रदीपिका में भी कहा गया है-"रस और मन, ये दोनों ही स्वभावतः चंचल हैं। रस के बंध जाने पर मन बंध (वश में हो)जाता है। इनके बंध जाने से भला क्या सिद्ध नहीं हो सकता? ये रस और प्राण मूर्छित (शान्त) होने पर समस्त रोगों को हर लेते हैं। ( ये दोनों) मरने पर दूसरों का जिला देते हैं। और बंधने पर आकाश में गमन करने लगते हैं। मन के स्थिर हो जाने पर प्राण स्थिर हो जाता है। और प्राण के स्थिर होने से वीर्य (शक्ति) स्थिर हो जाता है। वीर्य के स्थिर होने से शरीर में सत्त्व सदा स्थिर रहता
मनोबल प्राण-संवर में सावधानी और जागृति रखना अनिवार्य
निष्कर्ष यह है कि मनोबलं प्राण का संवर मन, प्राण और वीर्य तीनों को स्थिर करने तथा लक्ष्य में एकाग्र करने से ही सम्भव है। मनोबल प्राण-संवर-साधक अपने विचारों के प्रति प्रतिक्षण जागरूक रहता है। मन में निरन्तर विचार तरंगें उठती रहती हैं। वे भले ही उठे, परन्तु गंदे, निरुपयोगी विचार मन-मस्तिष्क में न उठने पाएँ, इस बात के प्रति वह पूर्ण सतर्क रहता है। गंदे और अनावश्यक, साथ ही हिंसादि पापपूर्ण विचारों तथा आम्रवोत्पादक चिन्तन को रोकना और तुरंत खदेड़ देना ही मनोबल प्राण संवर की साधना का प्रारम्भिक रूप है। । सावधान, सतर्क और सक्रिय रहने का कुछ दिन तक दृढ़तापूर्वक अभ्यास किया जाए, तो साधक की चिन्तन धारा में अनावश्यक विचारों का प्रवेश नहीं हो सकेगा। इसलिए संवर साधक विकसित मनःशक्ति को बिखरने नहीं देकर लक्ष्य की दिशा धारा में ही केन्द्रित रखता है। वचन-बल-प्राण-संवर की साधना के तथ्य और उपाय
वचन-बलप्राण-संवर की साधना भी सतर्कता पर आश्रित है। शरीर से बलिष्ठ या परिपुष्ट दीखने से ही कोई शक्तिमान् नहीं हो जात। शक्तिमान् वह है, जिसके मन और वाणी में प्रचण्ड प्राणऊर्जा सन्निहित है।दुर्बल शरीर लेकर कार्यक्षेत्र में उतरने और सफल होने वाले महान् आत्माओं की संख्या जगत् में अगणित है, जिन्होंने अपने मनोबल के कारण स्वयं को ऊँचा उठाया और वचन बल के कारण हजारों लोगों का जीवन निर्माण . किया।
तथागत बुद्ध की वाणी इतनी प्राणशक्ति से समन्वित थी कि झूख्वार अंगुलिमाल'
१.. अखण्ड ज्योति अप्रैल १९७७ से पृ. ४५ २. अखण्ड ज्योति, जुलाई १९७७ से भावांश ग्रहण पृ. ४५ :
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