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प्राण- संवर का स्वरूप और उसकी साधना ९२५
रोकने से तथा अपने मनोनीत शुद्ध लक्ष्य में केन्द्रित करने से तथा एकाग्रता से मनोबल प्राण- संवर की साधना प्रारम्भ होती है।
मन को एकाग्र एवं लक्ष्य में केन्द्रित करने के उपाय
अन्तिम लक्ष्य में मन की एकाग्रता अथवा केन्द्रीकरण की सिद्धि का सर्वोत्तम उपाय यही है कि उसे व्यर्थ की उलझनों समस्याओं से दूर रखा जाए। जिन बातों या रत्नत्रय की साधनाओं से तथा अपने लक्ष्य से सीधा सम्बन्ध हो, ऐसी ही बातों और विचारों तक सीमित रहा जाए।
अधिकांश लोग अपनी सांसारिक बातों में, घर-परिवार आदि की चिन्ताओं और समस्याओं में तथा छोटी-मोटी व्यर्थ की बातों में अपने मन को व्यस्त और व्यग्र बनाये रखते हैं, जिनका न तो स्वयं की आत्महित साधना से तथा रत्नत्रय रूप धर्म से कोई सम्बन्ध होता है, और न ही परहित, परकल्याण से उन बातों का कोई वास्ता होता है।
जो लोग जात्यन्धता, सम्प्रदायान्धता एवं राष्ट्रान्धता, तथा स्वार्थान्धता में उलझे रहते हैं, वे अपने मन को एकाग्र, लक्ष्य में तल्लीन एवं शुद्ध भावों में तन्मय नहीं कर सकते।
इसी प्रकार निरर्थक उत्सुकता की वृत्ति एवं विचारधारा वाले लोग मन को संकीर्ण, अनुदार और विशृंखल बना लेते हैं। वे सदैव अशान्त और उद्विग्न रहते हैं। उनका मन लक्ष्य में एकाग्र होने के बदले अस्त-व्यस्त, छिन्न-भिन्न और कभी-कभी उच्छृंखल और विक्षिप्त भी बन जाता है। वाचाल और गप्पी लोगों की अलक-मलक की, बातें सुन-सुन कर, या गंदी राजनीति, एवं युद्धोन्माद के समाचार सुन पढ़कर उन्हीं की चर्चा विचारणा में उलझे रहने से मन की प्राणऊर्जा का अपव्यय होता है।
अखबारों में ढूंढ-ढूँढकर सनसनीखेज बातें और संघर्षोत्तेजकं समाचार पढ़ना, जासूसी कहानियाँ, उपन्यास तथा कामोत्तेजक साहित्य पढ़ना, इत्यादि सब मन की चंचलता को बढ़ाते हैं।
मन की एकाग्रता कहाँ और किन बातों में?
एकाग्रता का यह अर्थ नहीं है कि मन को एक जगह बाँधकर रखा जाए, बल्कि मन को लक्ष्य की गहराई तक प्रवेश कराने की प्रवृत्ति ही वस्तुतः एकाग्रता है। वैसी एकाग्रता उच्चकोटि के आध्यात्मिक साहित्य का अध्ययन-मनन करने से, उच्चकोटि के श्रेष्ठ लोगों का सत्संग एवं पूर्वोक्त प्रकार से मन को व्यर्थ की बातों में न उलझाकर लक्ष्य में एकाग्र होने का अभ्यास करने से ही आती है। वैसी एकाग्रता आती है, धर्म-शुक्लध्यान में मन को एकाग्र करने से।
जब साधक शुभ ध्यान में एकाग्र हो जाता है, तब प्राण शान्त एवं निश्चल होता ही है। योग साधना का यह माना हुआ सिद्धान्त है कि जब तक प्राण शान्त एवं निश्चल
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